साधू का जीवन बहते हुय पानी के समान -मुनि श्री अभय सागर

अभिषेक जैन विदिशा-जो लोग पांचों पापों का त्याग पूर्ण रूपेण नहीं कर पाते और सुविधानुसार भी यदि उन पापों को संकल्पपूर्वक छोड़ते हैं तो वे भी एक दिन वृति श्रावक बन सकते हैं। उनका जीवन भी परिवर्तित हो सकता है। उपरोक्त उद्गार मुनि श्री अभय सागरजी  महाराज ने अरिहंत विहार जैन मंदिर में प्रातःकालीन प्रवचन सभा में व्यक्त  किए। उन्होंने कहा कि साधु का जीवन तो बहते हुए पानी के समान हैं।
जिन नदियों का जल बहता रहता है तो वह जल निर्मल बना रहता हैं। जो जल कई दिनों तक रुक जाए वह खराब हो जाता हैं और वह पीने योग्य नहीं रहता है। उसी प्रकार जो साधु नगर नगर विहार करते रहते हैं, उनकी वाणी का लाभ सभी आम जनता को मिलता हैं। उन्होंने एक सदगृहस्थ के चारित्र का वर्णन करते हुए कहा कि एक गृहस्थ भी पांच अणुव्रतों और चार शिक्षाव्रतों को धारण कर सकता हैं। वह महव्रतों को धारण नहीं कर पा रहा हैं तो स्थूल रुप से हिंसा, झूठ, चोरी और अब्रह्म तथा मूर्च्छा परिगृह को छोड़ कर अणुवृती बन सकता हैं।
मुनि श्री ने कहा कि पांच पापों का त्याग पूर्ण रूपेण नहीं कर पा रहे हो लेकिन उसमें भी सुविधानुसार यदि कोई संकल्प करता हैं, उनका जीवन भी परिवर्तित हो जाता है। उन्होंने उदाहरण देते हुए कहा कि मान लीजिए नौकरी आदि के कारण कोई रात भोजन का त्याग नहीं कर पा रहा है लेकिन उसने अपनी सुविधानुसार अपने आपको समय सीमा में बांध लिया तो वह संकल्प भी त्याग की सीमा में ही आएगा। उन्होंने कहा कि आपके नगर में भगवान का समवशरण लगने वाला हैं।
उसमें सभी लोगों को भाग लेना चाहिए लेकिन यदि किन्हीं कारणों से जो लोग खुद भाग नहीं ले पा रहे हैं और वे लोग भी इस समवशरण विधान में संकल्पित होकर कृत कारित अनुमोदना कर अपने द्रव्य का सदुपयोग किसी दूसरे व्यक्ति को भगवान की पूजा आराधना कराने में सहयोगी बनते हैं।
  संकलन अभिषेक जैन लुहाडीया रामगजमंडी

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