शौच धर्म का एक भाव है : मुनि श्री विनीत सागर जी



कोटा -नसियांजी दादाबाड़ी कोटा में शुक्रवार को मुनि श्री  विनीत सागर जी महाराज  ने प्रवचन में कहा कि लोभ के वशीभूत होकर संसारी व्यक्ति अपनो के साथ दगा एवं दुर्व्यहार करने से नहीं चूकता। वर्तमान में स्वछंदता की प्रवर्ती भी एक प्रकार का लोभ है। इसके कारण संयुक्त परिवार प्रथा घटती जा रही है और एकाकीपन आ रहा है। विनीत सागरजी महाराज ने बताया शौच धर्म एक भाव है। जिसका संबंध मन की पवित्रता से होता है। जब व्यक्ति भोगों की लालसा से ऊपर उठकर त्याग पूर्ण जीवन की और बढ़ता है शौच भाव प्रकट होता है। यह शौच धर्म सर्वधर्म का मूल है, जड़ है। केवल तन शुद्धि से मन शुद्धि नहीं होती। मन में लालसा या लोभ की प्रवृत्ति बनी रहने से व्यक्ति क्रोध, मान, माया, लोभ चारों कषाय करता है। इसलिए लोभ को पाप का बाप कहा गया है। मन की गंदगी तन पर आच्छादित हो जाती है। अतः निर्मल मन के बिना शौच धर्म की उत्पत्ति नहीं हो सकती है। जैसे रावण के व्रती होने पर भी लोभ कषाय एवं गर्व के कारण सीता हरण किया जो अनिष्ट का ही नहीं सर्वनाश का कारण बना। शौचधर्म का संदेश है कि धन किसी के साथ नहींं जाता। लोभ मात्र परिग्रह है। जब तक जीव इनको नहीं छोड़ेगा तब तक शौच धर्म प्रकट हो ही नही सकता।
लोभ कषाय से आत्मा का चारित्र गुण मलीन हो जाता है।  मुनि श्री  चंद्रप्रभ सागर जी
मुनि श्री  चंद्रप्रभ सागरजी  महाराज द्वारा बताया गया कि लोभ कषाय से आत्मा का चारित्र गुण मलीन हो जाता है। अतः शरीर परिग्रह है, इसमें गृहस्थी के सपने सजे रहने से मनुष्य पाप करता है।
संकलन अभिषेक जैन लुहाड़ीया रामगंजमंडी

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