खुरई-प्राचीन जैन मंदिर में मुनिश्री अभयसागर जी महाराज ने प्रवचन देते हुए कहा कि शासन दूसराें के ऊपर नहीं स्वयं के ऊपर किया जाता है। इन्द्रियों को अपनी आत्मा के वश में करने वाला जिनशासक हुआ करता है।
वह अपनी आत्मा को विभिन्न प्रकार के गुणों से आच्छादित करता हुआ परिग्रह पर विजय करता हुआ कष्ट के दिनों में भी साम्यभाव में जीना, सुख-दुख बैरी बंधु में साम्यदृष्टि रखना, ऐसे गुणों की परंपरा का निर्वाह करने वाला जिनशासक का वह दीपक होता है, जो दूसराें के नहीं बल्कि अपने सहारे चला करता है, जो स्वाश्रित जीवन जीने वाला दुनिया का प्रकाश पुंज बनता चला जाता है। उन्हाेंने कहा कि दीपक के तल में अंधेरा हो सकता है पर जिनेन्द्र गुणों से आच्छादित जीवन के तल में भी, अंदर भी, बाहर भी चारों दिशाओं में प्रकाश ही प्रकाश है, जो आत्मा का हित चाहता है।
कार्यों को सम्पादित करना भव्य पुरुषों का काम
उन्हाेंने कहा कि जीवन प्राप्त होना सहज हो सकता है लेकिन शुद्ध रीति, नीति से उसका निर्वाह करना कठिन होता है और मनुष्य भव का जीवन प्राप्त होने पर कषायों से रिक्त जीवन के कार्यों को सम्पादित करना भव्य पुरुषों का कार्य होता है। जो भवसागर से पार होने की क्षमता के धारक होते हैं कषाय के निमित्त मिलने पर कषाय न उखड़े ये अंदर के साम्यभाव की शक्ति का प्रभाव है दुष्ट वचन में भी आक्रोश नहीं आना, ये आक्रोश परीशह का कमाल है। क्रोध कषाय एक ऐसा ईंधन है जो आत्मा को अनंत संसार की यात्रा के लिए कारण बन जाता है। जो इस मर्म को जानते हैं वे क्रोध, मान, माया, लोभ इन चारों कषायों को अछूत रोग समझकर हमेशा बचने का प्रयास करते रहते हैं। यही कषायों का उपशमन करने का तरीका है।
संकलन अभिषेक जैन लुहाड़ीया रामगंजमंडी