प्रवचन.. समता रूपी धन ही समधन और समता रूप विवेक ही समधी है: गुणमति माताजी



केसली-सिद्धचक्र विधान के प्रथम दिन गृहस्थ जीवों के चार आश्रम की चर्चा करते हुए आर्यिका श्री गुणमति माताजी ने कहा कि बाल्य अवस्था तो निर्विकार ब्रह्मचर्य रूप होती है। पर गृहस्थ श्रावक भी हिंसादि पापों से विरक्त होता हुआ, समता भाव से जीवन जीता है, यही संतोष धन है और बाह्य मे भी सभी सम्बन्ध बराबरी में ज्यादा स्थाई होते हैं। सम माने बराबर और धी माने बुद्धि, विवेक आंतरिक सोच। वही समधी हैं और जो बाह्य परिस्थिति मे बराबर हैं वो समधन हैं। ऐसा जीव ही पाप का शत्रु है और धर्म आचरण ही मित्र है, ऐसे भाव धारण कर पाता है। ऐलक आदि की अवस्था ही वानप्रस्थ आश्रम है। ऐसा श्रावक ही चार पुरुषार्थ से मोक्षरूप शुद्ध आत्मस्वरूप रूपी नायिका का नायक बन पाता है। चेतना वधु है, चेतन वर है। यही स्वयं का स्वयं वर है।
स्वयं ही स्वयं को वरे, कि श्रमण आज दूल्हा बने हैं। लोक रमा तजके चले, आज कि हमने चरण पड़े हैं। उन्होंने कहा कि अहिंसा, सत्य, अचौर्य और अपरीग्रह के साथ धारण किया हुआ ब्रह्मचर्य ही आत्म लीनता को देने वाला है। यदि पंच इंद्रिय विषय पर संयम हो तो शारीरिक ब्रह्मचर्य और राग-द्वेष पर नियंत्रण हो तो ब्रह्म लीनता हो पाती है। भो! ब्रह्मचारी यदि तेरा पंच इन्द्रियों से जहर पीना बंद नहीं हुआ है तो तेरा कैसा संयम(ब्रह्मचर्य)। चर्चाएं भगवान की है क्रियाएं अघवान की है और परिणति मनुष्य की चल रही है। भक्ति ही मन को एकाग्र करने का सबसे सरल उपाय है। जो परम्परा से स्वर्ग और मोक्ष पद देने वाली है। अतः अपने छह आवश्यक को भली-भांति पालन करना चाहिए।
संकलन अभिषेक जैन लुहाड़ीया रामगंजमंडी

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