खुरई-मुनि श्री भावसागर जी महाराज ने कहा कि मन की तृष्णा को कभी पूरा नहीं किया जा सकता। जीवन पर्यन्त हम अपनी तृष्णा को पूरी करने की कोशिश करते हैं। अपनी इच्छाओं, आकांक्षाओं को पूर्ण करने की कोशिश करते हैं लेकिन उन्हें पूरी करने की कोशिश करने में हमारी जिंदगी पूरी हो जाती है तब भी इच्छाएं पूरी नहीं होती। जीवन को दुखी बनाने वाले कारणों में एक कारण है मन की इच्छा या तृष्णा।
उन्होंने कहा कि किसी भी वस्तु के प्रति हमारा ध्यान केन्द्रित होता है। हमारे मन में उनके प्रति आकर्षण से लगाव बढ़ता है। लगाव बढ़ने से उसे पाने की इच्छा जागृत होती है और फिर तृष्णा उत्पन्न होती है। हमारे मन में मोह जन्म लेता है और वहीं से हमारे मन में दुख की उत्पत्ति हो जाती है। अंतर्मन की पीड़ा का यह प्रबल कारण है। यदि हम देखें तो इसके स्थान पर दूसरी इच्छा उमड़ पड़ती है। जैसे सागर में एक लहर उत्पन्न होती है और वह लहर शांत होने से पहले ही दूसरी लहर को उत्पन्न कर देती है। इसी तरह तीसरी फिर और-और लहरें उत्पन्न होती रहती हैं।
उन्होंने कहा कि आज के मनुष्य का दुख उसकी आवश्यकताओं के कारण नहीं है अपितु उसकी आकांक्षाओं के कारण है क्योंकि आवश्यकता बहुत सीमित होती है लेकिन आकांक्षाएं अंतहीन होती हैं। आवश्यकताओं को बढ़ाना या घटाना मनुष्य के हाथ में है और सरल है लेकिन आकांक्षाओं को कम करना मनुष्य के लिए बहुत कठिन है। आकांक्षाएं हमारे मन को अशांत करती हैं। संत कहते हैं वही व्यक्ति शांत होता है जिसका मन आकांक्षाओं से रहित होता है। हम अपने मन को आकांक्षाओं से जितना कम करेंगे हमारे चित्त की शांति उतनी अधिक बढ़ेगी। हमारे मन में जितनी अधिक आकांक्षाएं होंगी उतना ही अधिक वह अशांत होगा। इन कमियों के कारण ही जीवन में दुख होता है। उन कमियों को पूरा करने का प्रयत्न निरंतर करते हैं। इनमें से कुछ को पूरा कर भी लेते हैं किंतु अंततः वे कभी पूरी नहीं होती, अधूरी ही बनी रहती है।
संकलन अभिषेक जैन लुहाड़ीया रामगंजमंडी
