रामायण सीरियल से हो रहा है सद- संस्कारो का शंखनाद

पारस जैन " पार्श्वमणि पत्रकार-आज 33 वर्ष यानी तीन दशक के बाद डीडी भारतीय टीवी चैनल टीवी चैनल पर परम आदरणीया स्वर्गीय श्री रामानंद सागर जी  निर्माता-निर्देशक द्वारा निर्मित   रामायण  टी वी सीरियल  प्रातः 9 बजे ओर रात 9 बजे चल रहा है जिसकी जिसको सभी लोग बड़ी श्रद्धा भक्ति भाव एवम समर्पण के साथ देख रहै है आज के इस दौर में जब मानव का खानपान आचार विचार सभी में बहुत परिवर्तन आ चुका है आज मानव में मानव है मानवता नहीं इंसान हैं इंसान है पर इंसानियता नहीं है । ऐसे समय में रामायण का प्रत्येक भाग जीवन में नवचेतना का संचार करता है एक एक शब्द मैं संस्कारो  सद संस्कारों का संस्कार समाहित है आज जब बच्चे इन्हें देखते हैं तो उनमें भी सद संस्कारों का बीजारोपण  होगा । कैसे बड़ो के चरणों को छुआ जाता है कैसे बड़ों से बात की जाती है कठिन से कठिन परिस्थितियों में हम अपने आत्मबल को कैसे मजबूत करें । यह सीख भी मिलती है जब हम महापुरुषों के जीवन चरित्र को पढ़ते हैं या देखते हैं तो हमें भी जीवन को उन्नति के पथ पर ले जाने की शिक्षा मिलती है जो अति महत्वपूर्ण  है ।व्यक्ति नही व्यक्तित्व की पूजा होती है  वो ज्यादा महत्वपूर्ण  है l लोकडाउन के दौरान  रामायण ,महाभारत मैनासुंदरी जैसे धार्मिक   सीरियल का चलना बेहद सराहनीय प्रशंसनीय अनुकरणीय कदम है इसकी जितनी प्रशंसा की जाए उतनी कम है। परम श्रदेय स्वर्गीय संगीतकार श्री रवींद्र जी जैन के द्वारा जो दोहे ओर चोपाईया संगीत की सुमधुर आवाज में आती है मन भाव विभोर हो जाता है । मुझे एक दृश्य याद आ रहा है जब  राजा दशरथ जी के द्वारा भगवान श्रीरामचंद्र जी को बुलाया जाता है और उन्हें माँ केकई जी  द्वारा 14 वर्ष का वनवास और भरत को राजतिलक का संदेश सुनाया जाता है तो मैंने पारस जैन पार्श्वमणि  स्वयम ने अपलक भगवान श्रीरामचंद्र जी  के चेहरे पर लगातार बिना पलके झपके  देखा एक हल्की सी सीकन भी उनके चेहरे पर नहीं आई  कोई दुख कोई पीड़ा दृष्टिगत नही हुई उन्होंने सहज भाव से कहा कि मैं  आपके वचनों का पालन करने के लिए 14 वर्ष के लिए वनवास को चला जाता हूं इसमें मेरा चारो ओर से  कल्याण  हो गया।  एक ही रात में राजभवन के सारे सुख  धन ,वैभव, सम्पदा ,संपति   छोड़कर राजभवन से वन की ओर गमन हो जाना यह नियति और प्रकृति का बहुत बड़ा खेल था वास्तव में भवन छोड़कर वन की ओर जो भी जाते हैं उनका जीवन बन जाता है और जीवन में बसंत आ जाता है ।वैराग्य भावना में  कहा भी गया है "जो संसार विशे  सुख  होता तीर्थंकर क्यू त्यागे काहे को शिव साधन करते संयम सो अनुराधे "अर्थात  यदि संसार मे सुख होता तो तीर्थकर इसका त्याग क्यू करते क्यो इतनी साधना तपस्या करते । यह सब मोक्ष प्राप्त करने के लिए की जाती है। संसार में  कोई सुखी नहीं है।  राजा हो या रंक एक न एक दुख तो उनके जीवन में अवश्य है यदि संसार में सुख होता तो हमारे 24 तीर्थंकर राजसी वैभव राजा महाराजाओं की जिंदगी छोड़कर सभी  परिग्रह  से नाता तोड़कर वन की ओर नहीं जाते और आत्म साधना आत्मा आत्मा का कल्याण नहीं करते । इस शरीर को साधना का माध्यम नही बनाते।  यह सार्वभौमिक सत्य है कि संसार में सुख नहीं है मात्र सुख आभास है।*

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