बांसवाड़ा-कॉमर्शियल कॉलोनी में स्थित संत भवन में आचार्य अनुभव सागरजी महाराज ने अपने प्रवचन के माध्यम से बताया कि अगर अंधा गड्ढे में गिर जाए तो संवेदना का पात्र बनता है। जब कि आंख वाला गिर जाए तो हंसी का पात्र बनता है। जिन बर्तनों में हम भोजन करते हैं, जिन कपड़ों को हम पहनते हैं, उन्हें संभालते तो हैं। लेकिन उनके प्रति आसक्ति नहीं रखते हैं। इसी तरह शरीर एक माध्यम है हमारी मंजिल को पाने का, मगर हम माध्यम में ही मोहित होकर बैठे हैं। आचार्य जी ने कहा कि माध्यम के साथ मध्यम व्यवहार रखना चाहिए। शरीर को संभालो, सजाओ मत। आचार्य श्री ने अपने वक्तव्य में कहा कि शरीर साधन है, इसे संभालना जरूरी है, लेकिन इतना नहीं कि हम आत्मा का नुकसान कर बैठे। हम शब्दों से तो बहुत कुछ कहते हैं। लेकिन आचरण में कुछ नहीं लाते। इसलिए हमारे शब्दों कि कीमत नहीं होती हैं। कहने से पहले आप उसे अपने आचरण में उतार फिर उसे दूसरे कहो। हम जिस शरीर को संभालने एवं सजाने लगे है, लेकिन क्या कभी हमने आत्मा को संभालने का प्रयत्न भी नहीं किया। आचार्य जी ने कहा कि जिस बात से शरीर का उपकार होता है उस बात से आत्मा विनाश होता है। जिससे आत्मा का उपकार हो उस बात से शरीर का विनाश होता है। शरीर तो पुण्य से संभल जाएगा, लेकिन आत्मा को संभालने का पुरूषार्थ हमें करना पड़ेगा। जैसे दूध तप कर घी बनता है, मिट्टी तप कर कलश बनती है, सोना तप कर कुंदन बनता है और आत्मा तप कर भगवान बन जाती है बस यही पुरुषार्थ हम सबको करना है।
संकलन अभिषेक जैन लुहाड़ीया रामगंजमंडी
