उपचुनावों में निर्णायक भूमिका में होंगी ‘मायावती’



मध्य प्रदेश: चंबल-ग्वालियर की विधानसभा की सीटें मध्य प्रदेश  में दोनों पार्टियों (बीजेपी-कांग्रेस) के लिए सिर्फ हार जीत का नहीं बल्कि नाक का सवाल बनी हुई हैं. वैसे तो कई मुद्दे इस चुनाव में हावी रहने वाले हैं, इसमें सबसे ज़्यादा जो मुद्दा हावी रहने वाला है वो मुद्दा है जाति का. चंबल ग्वालियर की सीटों पर सबसे ज़्यादा अगर कोई फैक्टर हावी है तो वो है जातिगत समीकरण का गणित I

आज इसी गणित को समझने की कोशिश करते हैं. सभी पार्टियों के पास अपने-अपने सर्वें रखे हैं. सबके पास जातिगत वोटबैंक का अपना अपना आंकड़ा है. इस बात से कतई इंकार नहीं है कि कांग्रेस में प्रत्याशियों चयन का आधार जातिगत होगा I

बीजेपी के लिए टेंशन इसलिए कम है क्योंकि उनके प्रत्याशी लगभग फिक्स हैं. इन 16 सीटों के इतिहास पर नजर डाली जाए तो चुनाव हमेशा या तो व्यक्ति आधारित रहा या फिर जाति आधारित. कई सीटों पर गणित इतना दिलचस्प है कि 2 बड़े प्रत्याशियों के लिए जाति के आधार पर वोट पडे और जीता वो जिसकी जाति की बाहुल्यता इलाके में थी ही नहीं. इतिहास इस बात का गवाह है कि दल के आधार पर वोटिंग तो होती है लेकिन जीतता वही प्रत्याशी है जिसे पार्टी जाति का आधार बनाकर खड़ा करती है I

चंबल में BSP बनाती-बिगाड़ती है गणित-इन सीटों पर आरक्षित वर्ग का वोट बैंक पूरी तरह से हावी है. यूपी से सटे इलाकों में बहुजन समाजपार्टी और समाजवादी पार्टी का काफी हस्तक्षेप है. हम मध्य प्रदेश में जैसे-जैसे प्रवेश करते जाते हैं, इसकी इंटेंसिटी कम होती जाती है. खासकर मुरैना, भिंड जैसे ज़िलों में बहुजन समाज पार्टी का प्रभाव कतई नकारा नहीं जा सकता. ज़्यादातर सीटों पर जहां से कांग्रेस के प्रत्याशी जीतकर आए हैं. वहां दूसरे नंबर पर बहुजन समाज पार्टी का प्रतिनिधित्व रहा है.

BSP के प्रत्याशी हर बार जीतकर तो नहीं आते लेकिन बीजेपी हो या कांग्रेस, इन पार्टियों के प्रत्याशी की जीत या हार में बहुजन समाज पार्टी भूमिका ज़रूर निभाती है.

जैसे 2018 के विधानसभा चुनावों में मुरैना में कांग्रेस के रघुराज कंसाना को 67 हज़ार वोट मिले. बीजेपी के रुस्तम सिंह को 47 हज़ार और 20 हज़ार के करीब वोट बीएसपी के बलबीर दंडोतिया ले गए. 10 साल पहले 2008 में बीएसपी के परसराम मुदगल को 39 हज़ार वोट मिले थे. जबकि बीजेपी के रुस्तम सिंह को 23 हज़ार और कांग्रेस के सोबरन सिंह को 33 हज़ार वोट मिले थे.
सुमावली में कांग्रेस के एदल कंसाना को 64 हजार वोट मिले. बीजेपी के अजब सिंह कुशवाह को 51 हज़ार और बीएसपी के गांधी मानवेंद्र सिंह को मिले 31 हज़ार वोट. 2008 में कांग्रेस के एदल कंसाना को 46 हज़ार, बीजेपी के गजराज सिकरवार को 31 हजार और बीएसपी से अजब सिंह को 36 हज़ार वोट मिले थे.

ऐसा ही हाल मुरैना और चंबल की लगभग सभी सीटों पर रहा है. जहां 2018 के विधानसभा चुनावों में कांग्रेस को जिताने में बहुजन समाज पार्टी की पिछले दरवाज़े से अहम भूमिका रही है. जैसे मुरैना की दिमनी विधानसभा में कांग्रेस ने ब्राह्मण प्रत्याशी उतारा, बीजेपी ने तोमर यानि ठाकुर को टिकट दिया तो बीएसपी ने भी ठाकुर प्रत्याशी मैदान में उतार दिया. कांग्रेस को जीत मिली.

अंबाह सीट पर कांग्रेस ने जाटव को मैदान में उतारा और बीजेपी ने सखवार को, बीएसपी ने भी सखवार को ही मैदान में उतारा, जाति के वोट बंट गए औऱ कांग्रेस जीत गई. जौरा सीट से बीजेपी ने सुबेदार सिंह राजौधा को टिकट दिया तो बीएसपी ने धाकड़ को टिकट दे दिया, कांग्रेस ने ब्राह्मण प्रत्याशी को मैदान में उतारा और जीत गई. ऐसे ही समीकरणों को देखते हुए लगभग सारी सीटों पर टिकट बांटे गए. जिसमें से ज़्यादातर सीटों पर अब उपचुनाव होने जा रहे हैं.

जातिगत समीकरण सिर्फ दलित वोट पर निर्भर नहीं करते. मुरैना, भिंड, शिवपुरी, गुना और चंबल की लगभग सारी सीटों पर सिकरवार, गुर्जर, राजपूत, ब्राह्मण अलग अलग तरह से हावी रहे हैं. कहीं कहीं ये गणित काफी दिलचस्प हो जाता है. जैसे कि मुरैना की दिमनी सीट पर सबसे ज़्यादा दबदबा राजपूत वोटर्स का है लेकिन वहां से जीतने वाला ब्राह्मण प्रत्याशी है. खैर इस ओर ध्यान देने की ज़रुरत कांग्रेस को ज़्यादा है क्योंकि बीजेपी खेमे के प्रत्याशियों के नाम तो लगभग फाइनल हैं.

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