खुरई-नवीन जैन मंदिर में प्रवचन हुए, 136 फीट ऊंचे सहस्त्रकूट जिनालय एवं चाैबीस तीर्थंकरों की मूलनायक जिनबिम्ब प्रतिमाओं को विराजमान करने हेतु श्रद्धालुओं ने की दान देने की घोषणा
व्यक्ति को कितनी भी विपरीत परिस्थितियों में आत्महत्या जैसे जघन्य कृत्य से बचना चाहिए और न ही किसी अन्य व्यक्ति का घात करने के बारे में ही सोचना चाहिए। यह सब क्रिया स्वयं को बेचने और दूसरों को खरीदने जैसी ही है। व्यक्ति का जीवन क्षण भंगुर है।
वर्तमान समय में प्रत्येक व्यक्ति अनेक प्रकार के तनाव एवं विभिन्न परेशानियों से जूझ रहा है, परिवार टूट रहे हैं, आत्मीयता, आपसी भाईचारा गायब है, एेसी विपरीत परिस्थितियों में एक मात्र 'मैत्रीभाव' ही व्यक्ति के जीवन में संजीवनी का कार्य कर सकता है। प्राणी मात्र के प्रति रक्षा, दया, करूणा के भाव आपका मोक्ष मार्ग प्रशस्त कर सकते हैं। आपके गृहस्थ जीवन को खुशहाल बना सकते हैं। यह बात नवीन जैन मंदिरजी में विराजमान आचार्यश्री विद्यासागर जी महाराज ने गुरुवार काे प्रवचन देते हुए कही। उन्होंने कहा कि अपने आप के अवलोकन से ही भय का अंत होता है। जब तक सूरज का दर्शन न हो तब तक ही अंधकार का आधिपत्य है, जब तक मालिक घर में नहीं है तब तक चोरों का जोर है, जब तक बारिश नहीं होती तब तक ही तपन है और जब तक स्वयं का अवलोकन नहीं होता तभी तक भय आतंक का जोर है। पर के आश्रय से होने वाला भय स्वाश्रय से समाप्त हो जाता है, क्योंकि पर को अपना मानने से ही भय होता है स्व को स्व मान ले, जान ले तो भय है ही नहीं।
। 136 फीट ऊंचे सहस्त्रकूट जिनालय एवं चाैबीस तीर्थंकरों की मूलनायक जिनबिम्ब प्रतिमाओं को विराजमान करने हेतु अनेक श्रद्धालुओं ने अपनी दान राशि की घोषणा की।
जिसने बहुत कुछ देखा लेकिन स्वयं को नहीं देखा उसने कुछ नहीं देखा
आचार्यश्री ने कहा कि भले ही भयभीत रहो किंतु जो तुम्हारा है वह मिटने वाला है ही नहीं। आज तक नहीं मिटा। हां, भय से आनंद का संवेदन जरूर मिटा है, दुख जरूर मिला है, संकटाें को आमंत्रित जरूर किया है तुम्हारा निर्भय स्वभाव शाश्वत है किंतु स्वभाव दृष्टि न होने से भय है जब-जब आत्मावलोकन है तब-तब निर्भय है। जैसे बीहड़ वन में भी मां की अंगुली पकड़कर बालक निर्भय होकर चल देता है वैसे ही कर्मों के भयानक वन में भी स्वभाव को थामकर निर्भय हो गंतव्य तक चल ही लेता है। जैसे रोगी होने पर औषधि को, नींद आने पर बिस्तर को याद करता है तो आश्चर्य है कि अनेक दुखों का वेदन करता हुआ यह जीव निर्भीक होकर सुख संवेदन के लिए स्वयं का अवलोकन क्यों नहीं करता? जिसने बहुत कुछ देखा लेकिन स्वयं को नहीं देखा तो कुछ नहीं देखा, जिसने मात्र स्वयं को देखा और कुछ नहीं देखा उसने सब कुछ देखा। पर को स्व मान परेशान होकर पर को निरखा तो भय बढ़ता हुआ ही दिखा और स्वको स्व मान स्वयं से निरखा तो भय का अंत होता दिखा।