मोक्ष कोई दुकान पर तो मिलता नहीं कि जाओ और खरीद लाओ: अाचार्यश्री

खुरई-जहां अग्नि प्रज्जवलित होगी वहां धुंआ तो उठेगा ही, मोक्ष चाहिए है तो मोह का त्याग करना ही पड़ेगा। मोह के त्याग करने के लिए मात्र 'ह' को हटाकर 'क्ष' ही तो लगाना है। कहो न 'हउ'। आत्मा अजर अमर है, इसका अस्तित्व भी कभी नष्ट नहीं होता, जो सोया हुआ है उसी को तो जगाना पड़ता है। जो मूर्त होता है वहीं तो मूर्तियों को विराजमान कर पाता है।
मोक्ष कोई दुकान पर तो मिलता नहीं कि जाओ और खरीद लाओ। जिसके अंदर मुहर्त है मोक्ष जाने का उसका नाम ही तो अन्तर्मुहर्त है। व्यक्ति कितने भी मुर्छित अवस्था में क्यों न हो, न तो उसका मोह ही कम होता है और न ही खाने-पीने की वस्तुओं का त्याग कर पाता है। यह बात नवीन जैन मंदिर में प्रवचन देते हुए अाचार्यश्री विद्यासागर महाराज ने कही।
उन्हाेंने कहा कि खाल का ख्याल कितना किया इसकी तरह तरह से हिफाजत की फिर भी खाल ने अपना स्वभाव दिखा ही दिया, हर पल पुरानी होती गई और तू मूढ़ बना इसे देख देखकर यही 'मैं हूँ' ऐसा भ्रमित हो गया। खाल को अपना मानना बालपन अर्थात् अज्ञानता है। जो पर से मिलता है वह बिछुड़ता ही है, जो अपना है वही शाश्वत रहता है। सोचो आत्मन! खाल को अपना मानते ही कितना संसार बढ़ जाता है। खाल पर लगे बाल से, खाल को ओढ़ाने वाली शाल से, इसे खिलाने वाले माल से न जाने कितनों से संबंध जुड़ जाता है, सारे बबाल ही खाल के प्रति राग से उत्पन्न होते हैं। इसलिए खाल का ख्याल छोड़, क्योंकि तेरी इस तन की खाल को पहले भी अनेक ने ओढ़ी है। आहारवर्गणा रूप पुद्गल परमाणुओं से बनी यह खाल की चादर अनंत जीवों ने ओढ़-ओढ़ कर छोड़ दी है अब तेरे पास आते ही तू इसे अपनी मान बैठा।
उन्हाेंने कहा कि क्या तुम दूसरों के उतरे वस्त्र पहनकर स्वयं को सुंदर दिखना चाहते हो। तुम यही कहोगे ना कि पहनना तो दूर, मैं पहनने के भाव भी नहीं करता, तो फिर एक तो विजातीय पर द्रव्य पुद्गल और उसमें भी अनंतों ने इन परमाणुओं को ग्रहण किया तो अब तुम इस देह को धारणकर क्यों इतना इतराते हो, यह क्या समझते हो कि मेरा जैसा कोई नहीं है। हां यदि कदाचित् तीर्थंकर की देह हो तो बात ही अलग है। उनके जैसा रूप धरती पर किसी का नहीं होता। मगर तुम्हारी खाल तो जूठन स्वरूप है कईयों ने धारण की हैं उतारन है फिर भी इसे पाकर इतना गुमान करते हो। आचार्यश्री ने कहा कि खाल को अपने ख्याल से भिन्न करो। खाल में रंग है उस रंग से भी राग-द्वेष आदि की तरंग उठती है जबकि तुम अरंग, निस्तरंग हो। इस पतली सी खाल से गाढ़ा राग न करो वैसे भी खाल के भीतर जो भरा है वह दर्शनीय नहीं है।
खाल के भीतर मल, मूत्र, पीव, रक्त आदि दुर्गंधित पदार्थों को ढक रखा है। यह काया तो अपनी माया छिटकाती है जो इसके चक्कर में आया उसे भटकाती है, साथ रहने का भ्रम पैदा करती है पर अंत में खाल यहीं रह जाती है, तब कुछ लोग मिट्टी की देह वाले आते हैं इसे भी मिट्टी में मिलाने के लिए और चेतन हंसा खाली चला जाता है। जब अंततोगत्वा खाली जाना ही है तो खाल से इतना लगाव क्यों। लौकिक में भी जो साथ में रहते हैं उन्हीं से लगाव रखते हैं, परायों का क्या विश्वास।
प्रवचन के पूर्व आचार्यश्री विद्यासागर जी महाराज के पद प्रक्षालन करने का सौभाग्य मलैया परिवार, जिनेद्र सेठी परिवार एवं अन्य दानदाताओं को प्राप्त हुआ। आचार्यश्री विद्यासागर जी महाराज की आहरचर्या पाठशाला की बहिन निधि जैन पिता जय कुमार जैन उजनेट वालों के यहां संपन्न हुई।
     संकलन अभिषेक जैन लुहाडीया रामगंजमंडी

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