भिंड-प्रवचन देते हुये आचार्य श्री विशुद्ध सागर जी महाराज ने कहा कि व्यक्ति के कार्य उसके आंतरिक भावों का परिचायक है। भाषा भी आंतरिक भावों की ही अभिव्यक्ति होती है, क्योंकि व्यक्ति के जैसे भाव बनाना है। वैसी ही उसकी भाषा बन जाती है। इसलिए व्यक्ति को अपने परिणामों में विशुद्धि लानी चाहिए। जिससे उसके भावों में सरलता का प्रवेश हो जाए और उसकी भाषा भी सरल हो जाए।
अहिंसा ही धर्म है...
महाराज श्री ने कहा कि अहिंसा ही धर्म है। संपूर्ण धर्मों को यदि कोई सार है तो वह एम मात्र अहिंसा ही है, कोई भी धर्म हिंसा को धर्म नहीं मानता, किसी भी धर्म में हिंसा करना धर्म नहीं बताया गया है। धर्म तो अहिंसा में है। जिसमें प्राणी मात्र के जीवों की रक्षा की जाती है, वहीं धर्म है। जैन साधक अहिंसा धर्म के परिपालन के लिए ही वर्षाकाल में चातुर्मास किया करते हैं। जिससे सूक्ष्म जीवों की हिंसा न हो और अहिंसा धर्म का पालन हो सके। इस मौके पर जैन समाज के कई वरिष्ठजन मौजूद रहे।
संगठन ही महाशक्ति होती है, काम पूरा करने के लिए ईमानदार होना जरूरी: आचार्य
धर्मसभा में आचार्य श्री ने आगे बोलते हुए कहा कि संगठन ही महाशक्ति होती है इसके माध्यम से हर काम संभव होते हैं। इस पंक्ति का मतलब यह है कि साथ मिलकर काम करने से किसी भी काम को पूरा किया जा सकता है। लेकिन इसके लिए ईमानदार होना जरूरी है। एक धागा शक्तिहीन है। जिसे छोटा सा बालक भी तोड़ सकता है। लेकिन वहीं धागा अन्य धागों के साथ मिल जाए तो उसको तोड़ना कठिन हो जाता है। संगठन ही प्रत्येक व्यक्ति को सफलता दिलवा सकता है। संगठन एवं एकता में शक्ति है। आपको यदि धर्म, परिवार, राज्य एवं देश की रक्षा करनी है तो संगठन बनाकर रहना पड़ेगा। इसलिए संगठन बहुत जरूरी है।
संकलन अभिषेक जैन लुहाड़ीया रामगंजमंडी

