शाॅर्टकट रास्ते को अपनाकर जीवन बर्बाद करते हैं लोग: मुनिश्री



खुरई -कर्म किसी को छोड़ते नहीं हैं। धर्मात्मा व्यक्ति की परीक्षा साधारण श्रावक से ज्यादा हुआ करती है। यदि आप किसी भी वस्तु का उपयोग नहीं करते हो चलेगा, परन्तु आपने यदि उसे छोड़ने का नियम ले लिया तो सच मानना नियम लेने के बाद आपका मन बार-बार उसी वस्तु की ओर जाता है, यही तो श्रावक की परीक्षा है। यह बात प्राचीन दिगंबर जैन मंदिर में प्रवचन देते हुए मुनिश्री अभय सागर जी  महाराज ने कही।
उन्होंने कहा कि श्रावक को कभी भी किसी भी साधु की साधना में बाधा उत्पन्न नहीं करना चाहिए। 'टपका का भय' वास्तव में व्यक्ति को भयभीत करता रहता है। जरा सी मुसीबत आई नहीं कि धर्म, ध्यान, नियम व्रत आदि को खुटिया पर टांग कर यह संसारी प्राणी शार्टकट रास्ते को अपना कर अपना जीवन बर्बाद कर लेता है। जो व्यक्ति धर्म के प्रति सच्चा श्रद्धान रखता है, उसका अकल्याण भी कल्याण में परिवर्तित हो जाया करता है।
वर्तमान समय में व्यक्ति को जो नहीं करना चाहिए, वह धड़ल्ले से कर रहा है। जानबूझकर अग्नि से खेल रहा है और चाहता है कि उसे शीतलता प्रदान हो जाए यह कैसे संभव है। उन्हाेंने कहा कि वर्तमान समय में अनेक ऐसे शब्दों का प्रचलन बढ़ता जा रहा है, जो सुनने में तो खराब लगते हैं, परन्तु उनका यदि सही भावार्थ निकाला जाए तो बहुत विस्मृत कर सकते है। जैसे पागल कहने में तो खराब लगता है, परन्तु सच्चे अर्थों में पा-गल वह है जो अपने पापों को गला दे। इसी तरह पाखंडी शब्द का भी आशय यह है कि जो अपने पापों को खंडित कर दे, उसे कहते हैं पाखंडी। उन्होंने कहा कि आध्यात्मिक सुख की प्राप्ति राग-द्वेष के क्षीण होने पर होती है। उच्चतम साधक के मन में अनुकूल या प्रतिकूल किसी भी परिस्थिति में राग-द्वेष नहीं रहता। हर परिस्थिति में वह सम रहता है, आत्मा में लीन रहता है। अनुकूल और प्रतिकूल दोनों ही परिस्थितियों में वह तटस्थ रहता है, सम बना रहता है। उसे अच्छा-बुरा जो कुछ भी मिलता है, उसे वह अपने पूर्व कर्मों का फल समझकर समभावपूर्वक सहते हुए साधना पथ पर बढ़ता रहता है और आत्मा को मलिन होने से बचाता है। उन्होंने कहा कि जिसने प्रभु को अर्थात् स्व-स्वरूप को पा लिया, उसके लिए फिर कुछ भी पाना शेष नहीं रह जाता। निष्काम भाव से की गई साधना, तप, जप, दान, दया, करूणा, क्षमा, सेवा आदि सत्कर्म कभी भी निष्फल नहीं जाते। धन-वैभव, सुख-साधन, यश-प्रतिष्ठा पाने की आकांक्षा त्यागकर अभिलाषा एवं कामना से रहित की गई साधना से, अपने शुद्ध आत्म स्वरूप की प्राप्ति संभव होती है। सुख और दुःख दानों परस्पर बंधु हैं। ये दोनों वेदनीय कर्म के कारण है। दोनों कर्मजन्य है। दोनों में ही आकुलता है, पीड़ा है। जो सुख में इतराता नहीं और दुःख में रोता नहीं, वह ज्ञानी है।
           संकलन अभिषेक जैन लुहाड़ीया रामगंजमंडी

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