खुरई-प्राचीन जैन मंदिर में प्रवचन देते हुए मुनिश्री निरीहसागर जी महाराज ने कहा कि जब जब वाद(कथन) होगा, वाद के साथ प्रतिवाद, विवाद, संवाद होगा ही होगा, यदि वाद के साथ संवाद, प्रतिवाद और विवाद होता है तो उसका समाधान मात्र स्याद्वाद से ही हो सकता है। स्याद्वाद यानि अपेक्षा-सापेक्षता से कथन पद्धति किसी अपेक्षा से वही कथन उचित होता है तो किसी अपेक्षा से वही कथन गलत हो जाता है।
उन्होंने कहा कि यूं तो धर्म एक है पर व्यक्तियों के बदल जाने, पात्र के बदल जाने से जिस तरह कर्म-धर्म बदल जाते हैं, उसी तरह धर्म तो अहिंसा रूप ही है, पर पात्र-व्यक्ति बदल जाने से धर्म को परिभाषित भी अनेक रूप में किया गया है। पात्र भेद से धर्म सामान्यतः दश लक्षण धर्म से परिभाषित किया गया है।
उन्होंने कहा कि श्रम का खाओ, दिन भर मुस्कुराओ की सूक्ति जीवन के आंगन को निरंतर बुहारने का संदेश दे रही है, यदि बिना श्रम मिल भी गया, तो सदुपयोग नहीं कर पाओगे, व्यसनों और कुसंगति में सब चला जाएगा। खा भी लिया तो पचेगा नहीं क्योंकि हजम करने हेतु न्याय-नीति पूर्ण विचार-आचार जैसा सम्यक् मित्र चाहिए। आज सभी बड़े बनने में लगे है, रातों रात में पैसा उगल रहे हैं। बाहरी प्रदर्शन, महत्वकांक्षाओं की पूर्ति में सब कुछ सरपट दौड़कर हवन कुंड में होम जा रहा है, न कोई अतीत की खिड़की खोलकर उसमें देखना चाहता है, न ही अंतहीन भविष्य का ख्याल है और तो और वर्तमान में भी वर्तमान होकर नहीं रह पा रहे हैं, तो वर्तमान का भविष्य क्या होगा? और वर्तमान का अतीत कैसा रहा होगा? यह बिन जाने सब जानने में आ रहा है।
उठो! आंख खोलो, कर्तव्य की पवित्र वेदी पर आलस्य, अकर्मण्यता, कुविचार, कुत्सित संगति, वर्तमान का दुःख तथा भविष्य की चिंता को अर्घ्य बनाकर समर्पित करो। साथ में संकल्प की नम्र मुद्रा में जलांजलि की शांतिधारा छोड़, वर्तमान के साथ भविष्य के लिए चलो। अपना हित अपनी मंद-मंद मुस्कान में लखो, भूतकाल से शिक्षा ग्रहण कर वर्तमान के परिश्रम द्वारा सुन्दर भविष्य को गढ़ो।
संकलन अभिषेक जैन लुहाड़िया रामगंजमंडी
उन्होंने कहा कि यूं तो धर्म एक है पर व्यक्तियों के बदल जाने, पात्र के बदल जाने से जिस तरह कर्म-धर्म बदल जाते हैं, उसी तरह धर्म तो अहिंसा रूप ही है, पर पात्र-व्यक्ति बदल जाने से धर्म को परिभाषित भी अनेक रूप में किया गया है। पात्र भेद से धर्म सामान्यतः दश लक्षण धर्म से परिभाषित किया गया है।
उन्होंने कहा कि श्रम का खाओ, दिन भर मुस्कुराओ की सूक्ति जीवन के आंगन को निरंतर बुहारने का संदेश दे रही है, यदि बिना श्रम मिल भी गया, तो सदुपयोग नहीं कर पाओगे, व्यसनों और कुसंगति में सब चला जाएगा। खा भी लिया तो पचेगा नहीं क्योंकि हजम करने हेतु न्याय-नीति पूर्ण विचार-आचार जैसा सम्यक् मित्र चाहिए। आज सभी बड़े बनने में लगे है, रातों रात में पैसा उगल रहे हैं। बाहरी प्रदर्शन, महत्वकांक्षाओं की पूर्ति में सब कुछ सरपट दौड़कर हवन कुंड में होम जा रहा है, न कोई अतीत की खिड़की खोलकर उसमें देखना चाहता है, न ही अंतहीन भविष्य का ख्याल है और तो और वर्तमान में भी वर्तमान होकर नहीं रह पा रहे हैं, तो वर्तमान का भविष्य क्या होगा? और वर्तमान का अतीत कैसा रहा होगा? यह बिन जाने सब जानने में आ रहा है।
उठो! आंख खोलो, कर्तव्य की पवित्र वेदी पर आलस्य, अकर्मण्यता, कुविचार, कुत्सित संगति, वर्तमान का दुःख तथा भविष्य की चिंता को अर्घ्य बनाकर समर्पित करो। साथ में संकल्प की नम्र मुद्रा में जलांजलि की शांतिधारा छोड़, वर्तमान के साथ भविष्य के लिए चलो। अपना हित अपनी मंद-मंद मुस्कान में लखो, भूतकाल से शिक्षा ग्रहण कर वर्तमान के परिश्रम द्वारा सुन्दर भविष्य को गढ़ो।
संकलन अभिषेक जैन लुहाड़िया रामगंजमंडी