खुरई -व्यक्ति धन से छोटा या बड़ा नहीं होता। व्यक्ति के जीवन में चरित्र प्रधान होना चाहिए। जिसके पास चरित्र धन होता है उसकी यश, कीर्ति, सम्मान सर्वत्र होता है। सम्यक चरित्र व्यक्ति का मोक्ष मार्ग प्रशस्त करने में सहायक बन जाया करता है और जिसके पास सम्यक दर्शन, सम्यक ज्ञान, सम्यक चरित्र का प्रादुर्भाव होता है वह 'जीवन-मरण' से मुक्त हो सकता है। यह बात प्राचीन दिगंबर जैन मंदिर में प्रवचन देते हुए मुनिश्री प्रभात सागरजी महाराज ने कही।
उन्होंने कहा कि व्यक्ति जैसे-जैसे भागते दौड़ते धर्म करना चाहता है। भागते दौड़ते कभी धर्म नहीं हो सकता। यह तो मायाचारी है। जब तक हम पूर्ण विवेक एवं मन, वचन, कार्य में एकरूपता नहीं ला पाएंगे, तब तक हम धर्म के मर्म को समझ ही नहीं पाएंगे। पूजा पाठ, दर्शन, वंदन आदि करने के लिए समय सीमा में नहीं बांधा जा सकता। उन्होंने कहा कि धर्म वैसे भी प्रदर्शन की वस्तु नहीं है, यह तो अंतरंग में धारण करने की वस्तु है। मात्र पुजारी बनकर धर्म संभव नहीं। अभिषेक, पूजन करने की अपनी विधि है। जब तक हम इसका भावार्थ नहीं समझेंगे तब तक इसका फल मिलना मुश्किल है। निर्धन व्यक्ति भी चाहे तो बड़े-बड़े धार्मिक अनुष्ठान संपन्न करा सकता है। बस उसके भाव निर्मल एवं पवित्र होना चाहिए। जो व्यक्ति निष्काम भाव से धर्म आदि करता है, उसका साथ भगवान भी देता है। उन्होंने कहा कि इतिहास साक्षी है, भाव से चढ़ाए अक्षत के तीन दाने भी रत्न में परिवर्तित हो जाते हैं। निर्मल भाव के कारण ही ''बुढ़िया की लुटिया'' कमाल कर देती है। एक ग्वाला के हाथ लगाने मात्र से रथ चल पड़ता है। भावों की महिमा अपरंपार हुआ करती है ।
उन्होंने कहा कि दान कोई भी हो किसी के द्वारा दिया जा रहा हो, कितना ही कम या ज्यादा क्यों न हो यदि निश्छल एवं निष्काम भाव से दिया गया हो, न्याय नीति पूर्वक अर्जित किया गया हो उसका फल दान दातार को सहस्त्रों गुना मिलता ही है। एक दिन का दिया आहार दान, औषधि दान, ज्ञान दान आदि हमारे अनंतानंत कर्मों की निर्जरा में सहायक बन जाया करता है।
संकलन अभिषेक जैन लुहाडीया रामगंजमंडी

