भोपाल -इकबाल मैदान मे मुनि श्री प्रमाण सागर जी महाराज ने प्रवचन देते कहा अंगीठी सुलग रही थी, लाल लाल अंगारे उसमे सुलग रहे थे। उसी वक़्त एक अंगारे के मन मे ख्याल आया कि मैं इतना चमक रहा हु, आभा मान हु। मैं इस अंगीठी मे क्यो रहू। वह उचककर बाहर आ गया। धीरे धीरे उसकी आभा कम होती गई। मुह काला राख बन गया, जब तक अंगीठी मे था उसकी आभा सुरक्षित थी। अलग होने पर खत्म हो गई।
मुनि श्री ने कहा मनुष्य की स्थिति भी ऐसी है। वह अहंकार मे स्वंतंत्र रहने की कोशिश करता है, लेकिन वो छिन्न भिन्न हो जाता है। अहम इसका बड़ा कारण है। अहम की खूंटी पर ही अशांति टंगती है। चार कषाय होती है क्रोध, मान, माया, लोभ। मान पत्र से तो सभी खुश हो जाते है। मनुष्य के मन मे पुलने वाला मान सहजता सरलता को खण्डित कर देता है।
मुनि श्री ने कहा मैं कुछ हु, इस भाव का नाम ही अहंकार है। मैं हु तो कोई बात नही। हर मनुष्य अपने आपको विशेष मानता है। अपने आपको बड़ा मानना, पर दीन मानकर अपने आपके स्वरूप को नही पहचाना। बड़ेपन का मान छोटे पन की दुर्बलता, मनुष्य को अशान्त करती है। अहंकार का जन्मदाता अज्ञान है। अपने आपको करता मानना अज्ञान है,सदा यही भाव रखो मैं निमित्त हु कर्ता नही। इससे आप हमेशा सहज रहेगे। क्रिया करो पर क्रिया के कृतत्व को अपने ऊपर हावी मत होने दो। धन, जीवन, यौवन पानी के बुलबुले की भांति है। जीवन मे पद प्रतिष्ठा के लिए मत भागो। पद तो समय सीमा के लिए बंधा होता है।
संकलन अभिषेक जैन लुहाड़िया रामगंजमण्डी