बांसवाड़ा-कॉमर्शियल कॉलोनी स्थित संत भवन में आचार्य अनुभव सागर महाराज ने अपने प्रवचन के माध्यम से बताया कि भले ही अध्यात्म दृष्टि से पुण्य- पाप दोनों ही आत्मा के स्वरूप नहीं, लेकिन मार्ग पर चलते हुए कदम - कदम पर पुण्य की आवश्यकता होती है। अध्यात्म के अनुभव के लिए भूमिका स्वरूप प्रायोगिक क्रियात्मक जीवन शैली को अपनाना एक अत्यावश्यक घटक है। जैनाचार्य कहते हैं कि गृहस्थ जीवन प्रति समय आरंभ क्रियाओं से पाप संचय कर घर बना रहता है और हर व्यक्ति का सामर्थ्य नहीं जो वह पाप को पूरी तरह विसर्जित कर पाए। आचार्यजी ने कहा कि यह तो दीर्घकालिक साधना का प्रतिफल है, लेकिन हम इतना तो पुरुषार्थ कर ही सकते हैं कि हम से भले ही पाप नहीं छूट पा रहा हो पर पाप को और ना बढ़ाएं। पाप क्रियाओं को ना छोड़ पाए तो भी कम से कम पाप में आनंद मनाना छोड़ दें
संकलन अभिषेक जैन लुहाडीया रामगंजमण्डी
