बच्चों में संस्कार मां के पेट से नहीं आते हैं, बल्कि वे तो जीवन में गढ़े जाते हैं : आचार्य

बांसवाड़ा-मोहन कॉलोनी स्थित भगवान आदिनाथ मंदिर में आचार्य पुलक सागरजी  महाराज  ने अपने प्रवचन के माध्यम से बताया कि संस्कार शब्द बहुत सुंदर शब्द है।  संस्कार से संस्कृति शब्द की उत्पत्ति हुई है। संस्कृति यानी किसी भी समाज,  राष्ट्रीय धर्म का आंतरिक और उपाय चेहरा मोहरा है। संस्कार बचपन से आते  हैं। मेरी इस बात का अर्थ ये नहीं कि बच्चा संस्कारों को मां के पेट से ही  लेकर आता है। यह बात भी पूरी तरह सच नहीं है कि किसी बच्चे में संस्कार  होने या ना होने में मात्र ईश्वर के आशीर्वाद का योगदान रहता है।  सत्यतापूर्ण यथार्थ यह है कि संस्कार गढ़े जाते हैं, संस्कार बनाए जाते हैं।  ठीक उसी तरह जैसे कुम्हार मिट्टी की ढेली को अपने चाक पर लगाकर हल्की  हल्की चपत लगाते हुए उसे कलश दीप या अन्य कोई रूप देता है। तो हमें भी  कुंभकार जैसी ही भूमिका निभानी है। मिट्‌टी की ढेली के समान अपने बच्चों को  नियम अनुशासन और धर्म की चाक पर कसकर उन्हें भी लोगों की प्यास बुझाने  वाला कलश बनाना है। अंधकार का नाश कर चारों ओर उजियारा करने वाला दीपक भी  बनाना है। आचार्य जी ने कहा कि कुंभकार तो अपनी रोजी रोटी कमाने के  उद्देश्य करता है, लेकिन हमारा उद्देश्य समाज राष्ट्र अपने आसपास के परिवेश  के सुखद भविष्य की खातिर संस्कारित नई पीढ़ियों को गढ़ना है। आचार्य जी ने  कहा कि अपने बच्चों को क्या तुम अपने बच्चे की पढ़ाई के लिए भेजकर अपने  दायित्वों से मुक्त हो गए। कालेजों के कैंपस प्लेसमेंट के जरिए किसी भी  मल्टीनेशनल कंपनी में नौकरी अपनी जिंदगी शुरु कर तुम्हारी परंपराएं एवं  तुम्हारे संस्कार किस अंधेरी भी आवाज हुक्का में खो जाएंगे। आचार्य जी ने  कहा कि बच्चों को संस्कार देने के लिए तुम्हारे पास वक्त नहीं है। मुझे  मालूम है तुम बच्चों को संस्कार की सीख देने के लिए वक्त निकाल सकते हो,  लेकिन इसके लिए तुम मानते नहीं। बच्चा क्लास के होमवर्क और तुम भी कारोबार  नौकरी में व्यस्त रहते हो।
           संकलन अभिषेक जैन लूहाडीया रामगंजमंडी

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