जैन पत्र पत्रिकाओं को प्रबल सहयोग की नितांत आवश्यकता

 पारस जैन " पार्श्वमनी" पत्रकार-आज सम्पूर्ण भारत में जैन समाज की कुल जनसंख्या बहुत ही कम रह गई है । और कुछ हमारी गलतियों की वजह से भारत सरकार द्वारा आंकड़े कम दिखाई जा रहे हैं। वह इसलिए कि हम जैन लिखने की बजाए अपने नाम के साथ गोत्र लिखते हैं जिसके कारण वह या तो हिंदू समुदाय के साथ जोड़ दिया जाता है अथवा अदर कैटेगरी में डाल दिया जाता है। पूरे भारत मे जितनी भी जैन पत्र पत्रिकाओं का प्रकाशन होता है ।उनमें एक वर्ष में तीन या चार बार ही शुभकामनाएं और बधाई के संदेश दिए जाते है। मोबाइल इंटरनेट सोशल मीडिया की वजह से भी इन पत्र पत्रिकाओं पर बहुत विपरीत प्रभाव पड़ा है और दूसरी सबसे आश्चर्य की बात यह है कि श्रद्धालुजन धार्मिक आयोजनों में बड़ी बड़ी बोलियाँ ले लेते है। शादी विवाह में तथा जन्म दिवस शादी की वर्षगांठ आदि समारोह में लाखों करोड़ों खर्च कर देते हैं लेकिन इन जैन पत्र पत्रिकाओं को छोटे छोटे विज्ञापन संदेश देने में बहुत विचार करते है। हमारी जैन पत्र पत्रिकाओं का भविष्य अब खतरे में नजर आ रहा है। यह एक बहुत गंभीर समस्या है। सम्पूर्ण भारत के जैन समाज को इस विषय पर गंभीरता से सोचना चाहिए। जबकि इनको प्रबल प्रोत्साहन रूपी संबल मिलना चाहिए। जैन धर्म दर्शन का प्रचार प्रसार करने में इनकी बहुत अहम भूमिका होती है।

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