भिंड-धर्मसभा में गणाचार्य विराग सागर जी महाराज ने कहा कि मनुष्य की अंतरंग भावना ही प्रयोजनाभूत है, वहीं कहने, सुनने को शब्द विद्या कहते हैं, पर भाव बिना यह विद्या सार्थक नहीं होती। शब्दों के साथ भाव होना भी जरूरी हैं। क्योंकि मनुष्य की भावना से पुरुषार्थ सार्थक होता है।
महाराज ने आगे कहा कि पुरुषार्थ दो शब्दों से बना है, पुरुष तथा अर्थ। पुरुष का अर्थ है विवेकशील प्राणी तथा अर्थ का मतलब है लक्ष्य। इसलिए पुरुषार्थ का अर्थ हुआ विवेकशील प्राणी का लक्ष्य। एक विवेकशील प्राणी का लक्ष्य होता है परमात्मा से मिलन। इसके लिए वह जिन उपायों को अपनाता है वे ही पुरुषार्थ हैं। जैन समाज के लोगाें को जैन धर्म भोग विलास छोड़कर, ईश्वर भक्ति की ओर एक कदम बढ़ाना चाहिए, तभी उनके जीवन में स्थायित्व आएगा। क्योंकि भगवान के प्रति श्रद्धा का भाव होने पर ही जीवन का कल्याण होता है।
मुनिश्री इस पापी पेट और जीभ की इच्छा पूर्ति में व्यक्ति कितना परिश्रम करता है कि वह न दिन को दिन देखता है और न रात। लेकिन ईश्वर की भक्ति के लिए उसके पास समय नहीं है। इस वजह से वह परेशान रहता है। अगर आप को अपने जीवन में वास्तविक सुख चाहते हो तो दुनिया की मोहमाया छोड़कर सतसंग करो।
संकलन अभिषेक जैन लुहाड़ीया रामगंजमंडी
