कल्याण करने के लिए श्रद्धा और ज्ञान के साथ क्रिया यानी चरित्र चाहिए निर्भय सागर जी

दमोह-आचार्य श्री निर्भय सागर जी महाराज ने जैन मुनियो के आगे 108 लगाने के कारण को बताते हुए कहा जैन मुनि अहिंसा आदि 28 मूलगुण के धारी होते है,ठड़ गर्मी आदि 22 परिषह सहन करते है संसार की अस्थाई रूप बारह भावना भाते है उपवास आदि बारह प्रकार के तप तपते है। क्षमा आदि दस धर्म धारण करते है। चींटी वनस्पतिआदि 6 प्रकार  के जीवों की रक्षा करते  है और ज्ञान चरित्र आदि पंच प्रकार चरित्र धारण करते है। इन सबकी संख्या 108 होती है इन्ही लक्षणो और गुणों के कारण दिगम्बर जैन मुनि के साथ उपाधि के रूप मे लिखा जाता है। पाप कर्म के आश्रव एवम बंध के जीव के मन, वचन काय आदि 108 प्रकार के कारण होते है इन पापों को बंधने से मुनि रोकते हैं इसीलिए 108 लगाते है।
  आचार्य श्री ने कहा साधु वही पूज्य है  जो लोभ, लालज,छल, कपट, आरंभ, परिग्रह,विषय वासना और हिंसा आदि पाप कर्मो से दूर रहता है। जो साधु के रूप मे यह सब कार्य करता है उसे ढोंगी कहते है। ऐसे साधु समाज देश के लिए कलंक है। दिगंबर सन्त या साधु अपने पास सुई की नोक पर ठहरे जाने वाले परिग्रह को ग्रहण नही करते और हिंसा के नाम पर एक हरे घास का तिनका भी नही तोड़ते, ऐसे मुनि दिगबर मुनि जिनलिंगी कहलाते है। इसीलिए नकली साधु नही बनाना चाहिए। साधु की चर्या बिल्ली जैसी शुरुआत में तेज बाद मे कम होती हुई नही होना चाहिए बल्कि सिंह जैसी शुरुआत मे कम बाद मे तेज होती हुई होना चाहिए। बिल्ली शुरू मे तेज  आवाज़ निकालती है बाद मे कम हो जाती है लेकिन शेर की आवाज़ शुरू में कम बाद में तेज होती है साधु को भी प्रारंभ में त्याग तपस्या कम बाद मे निरन्तर त्याग तपस्या बढ़ाते चलना चाहिए।
   संकलन अभिषेक जैन लुहाडीया रामगंजमंडी

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