चारित्र चक्रवती आचार्य शांतिसागर जी महाराज की रत्नत्रय की साधना बहुत कठोर थी उदार सागर जी महाराज

शाहगढ़-जैन परम्परा के 20 वीं सदी के प्रथमाचार्य चारित्र चक्रवर्ती कठोर तपस्वी संत 108 श्री शांतिसागर जी महाराज का 66वां समाधि महोत्सव बुधवार को धूमधाम के साथ मनाया गया। इस अवसर पर श्री 1008 पार्श्वनाथ दिगम्बर जैन मंदिर में प्रातः जिनेन्द्र प्रभु का अभिषेक, शांतिधारा, आचार्य परमेष्ठि विधान पूजन-अर्चना किया गया। बड़ा मन्दिर में विराजमान जैन संत आचार्य उदारसागर जी महाराज के सानिध्य में प्रथमाचार्य शांतिसागर जी महाराज (दक्षिण) के समाधि दिवस पर श्रद्धालुओं ने विशेष पूजन-अर्चना पंच परमेष्ठि विधान और महाराज श्री को विनयाजली समर्पित की।
इसके उपरांत श्रावक गुरुभक्ति में खूब झूमें और श्रद्धा भक्तिपूर्वक जिनेन्द्र प्रभु व चातुर्मासरत  गुरुदेव के श्री चरणों में अर्घ्य अर्पित किया। इस दौरान “हर कलश मंगल नही होता, हर सागर महासागर नहीं होता, साधु संत दुनिया में लाखों करोड़ों है, मगर हर संत चारित्र चक्रवर्ती आचार्य शांतिसागर नही होते” जैसे श्लोकों पर गुरुदेव के जयकारो से मंदिर परिसर गुंजायमान हुआ।
20 वीं सदी के प्रथम जैन आचार्य शांतिसागर जी महाराज के जीवन पर प्रकाश डालते हुए  संत आचार्य उदार सागर जी महाराज ने धर्मसभा में कहा कि चारित्र चक्रवर्ती आचार्य शांतिसागर जी महाराज की रत्नत्रय साधना अत्यंत कठोर थी। वो शरीर को पराया समझ कर कभी-कभी आहार लेते थे। उपवास उनके जीवन में एक महत्वपूर्ण चर्या थी। उन्होंने  कहा कि उन्होंने अपने साधु जीवन में अन्न त्याग कर कुल 9338 उपवास किए। वो कई उपसर्ग सहते हुए भी अपने कठोर तप-त्याग-साधना में लगे रहे।
          संकलन अभिषेक जैन लुहाड़िया रामगंजमंडी

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