दरिद्रता, भय और विपत्ति दूर करता है पवित्र 'णमोकार महामंत्र'- मुनि श्री सुधा सागर

अभिषेक जैन-आवां कस्बे में श्री शांतिनाथ दिगंबर जैन अतिशय क्षेत्र 'सुदर्शनोदय' तीर्थ स्थल पर चातुर्मास कर रहे मुनि पुंगव सुधा सागरजी महाराज ने गुरुवार को अपने मंगल प्रवचनों मे कहा की जैन दर्शन एक प्राचीन भारतीय दर्शन है। इसमें अहिंसा को सर्वोच्च स्थान दिया गया है। जैन धर्म की मान्यता अनुसार 24 तीर्थंकर समय-समय पर संसार चक्र में फसे जीवों के कल्याण के लिए उपदेश देने इस धरती पर आते है। लगभग छठी शताब्दी ई.पू. में अंतिम तीर्थंकर, भगवान महावीर के द्वारा जैन दर्शन का पुनर्वरण हुआ । इसमें वेद की प्रामाणिकता को कर्म काण्ड की अधिकता और जड़ता के कारण मिथ्या बताया गया।
जैन धर्म का पवित्र और अनादि मंत्र है णमोकार महामंत्र: मुनि सुधा सागरजी महाराज ने अपने मंगल प्रवचनों मे कहा की णमोकार महामंत्र को जैन धर्म का परम पवित्र और अनादि मूल मंत्र माना जाता है। इसमें किसी व्यक्ति का नहीं, किंतु संपूर्ण रूप से विकसित और विकासमान विशुद्ध आत्मस्वरूप का दर्शन, स्मरण, चिंतन, ध्यान एवं अनुभव किया जाता है। इसलिए यह अनादि और अक्षय स्वरूपी मंत्र है। यह लोकोत्तर मंत्र है। यह मंत्र णमोकार मंत्र बहुत आत्म-सहायक है। आत्म विशुद्धि और मुक्ति के लिए नियमित रूप से णमोकार मंत्र का जाप करना चाहिए।
उन्होंने ने कहा कि लौकिक मंत्र आदि सिर्फ लौकिक लाभ पहुंचाते हैं, किंतु लोकोत्तर मंत्र लौकिक और लोकोत्तर दोनों कार्य सिद्ध करते हैं। इसलिए णमोकार मंत्र सर्व कार्य सिद्धिकारक लोकोत्तर मंत्र माना जाता है। णमोकार-स्मरण से अनेक लोगों के रोग, दरिद्रता, भय, विपत्तियां दूर होने की अनुभव सिद्ध घटनाएं सुनी जाती हैं।
मन चाहे काम आसानी से बन जाने के अनुभव भी सुने हैं। अतः यह निश्चित रूप में माना जा सकता है कि णमोकार मंत्र हमें जीवन की समस्याओं, कठिनाइयों, चिंताओं, बाधाओं से पार पहुंचाने में सबसे बड़ा आत्म-सहायक है। इसलिए इस मंत्र का नियमित जाप करना बताया गया है।
इन पवित्र आत्माओं को शुद्ध भावपूर्वक किया गया यह पंच नमस्कार सब पापों का नाश करने वाला है। संसार में सबसे उत्तम मंगल है।
इस मंत्र के प्रथम पांच पदों में 35 अक्षर और शेष दो पदों में 33 अक्षर हैं। इस तरह कुल 68 अक्षरों का यह महामंत्र समस्त कार्यों को सिद्ध करने वाला व कल्याणकारी अनादि सिद्ध मंत्र है। इसकी आराधना करने वाला स्वर्ग और मुक्ति को प्राप्त कर लेता है।
मुनि सुधा सागरजी महाराज ने कहा की आहार को संतों ने, पूर्वाचार्या ने, तीन भागों में विभाजित किया है। 1. तामसिक भोजन 2. राजसिक भोजन 3. सात्विक भोजन 'जैसा खाओ अन्न वैसा होवे मन' 'अच्छा होवे मन तब बन जाओ भगवन' आचार्यों के अनुसार सात्विक भोजन बनाने में हिंसा की संभावना नहीं रहती। ये भोजन उदर पूर्ति हेतु इहलोक और परलोक सुधारने के निमित्त तैयार किया जाता है। ऐसे भोजन से विचारों में निर्मलता आती है जो घर, परिवार व सुदृढ़ समाज में शां‍ति स्थापित करती है।

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