अभिषेक जैन खुरई-जो जैसा यहां कर्म करता है वो वैसा फल पाता है। वैसा फल उसे चखना पड़ता है। जो हम विचार करते हैं वो हमारे मन का कर्म है। जो हम बोलते हैं वो हमारी वाणी का कर्म है, जो हम क्रिया करते हैं या चेष्टा करते हैं वो हमारे शरीर का कर्म है और इतना ही नहीं जो हम करते हैं वह तो कर्म है ही, जो हम भोगते हैं वह भी कर्म है और जो हमारे साथ जुड़ जाता है, संचित हो जाता है वह भी कर्म है। यह बात प्राचीन जैन मंदिर में संचालित संस्कार संध्या शिविर में मुनिश्री प्रयोग सागर जी महाराज ने प्रवचन देते हुए कही।
उन्होंने कहा कि हर जीव की अपनी व्यक्तिगत पहचान है। हर जीव की अपनी स्वतंत्र सत्ता है। एक-दूसरे से हम प्रभावित होकर मन से विचार करते हैं, वाणी से अपने विचारों को व्यक्त करते हैं, शरीर से चेष्टा या क्रिया करते हैं और इस विचार या कही गई बात को पूरा करने का प्रयत्न करते हैं इस तरह हमारा संसार किन्हीं क्षणों में बढ़ता भी है और किन्ही क्षणों में हमारा संसार घट भी जाता है तो इसलिए जो संसार की विविधता है वो मेरी अपनी वाणी, मेरी अपने मन और मेरे अपने शरीर से होने वाली क्रियाओं पर निर्धारित है बहुत हद तक। गीता में कर्म के तीन भेद कहे हैं। जैन धर्म में भी कर्म के तीन भेद कहे हैं।
जो हमारे साथ जुड़ जाता है, संचित हो जाता है: मुनिश्री प्रयोग सागर
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Tuesday, August 07, 2018
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