अभिषेक जैन रतलाम-जो व्यक्ति अपने दुर्गुणों, दोषों, अक्षमताओं, अंहकार को जान कर जाग जाता है और उन्हें इच्छा शक्ति से दूर करने का प्रयास करता है। वह सम्राट बन जाता है और जो इन दुर्गुणों के अधीन रहता है वह हार कर जीवन को गुलाम की भांति जीता है।
यह बात संत शिरोमणि विद्यासागरजी के शिष्य, शंका समाधान के विद्वान मुनिश्री 108 प्रमाण सागरजी ने कही। दिगंबर जैन धर्म प्रभावना चातुर्मास समिति द्वारा लोकेंद्र भवन में आयोजित चातुर्मास में उन्होंने कहा लोगों का झुकाव आध्यात्म और धर्म की तरफ कम और भौतिकवाद की उन्हें तमाम चीजों, व्यवस्थाओं और योजनाओं पर ज्यादा है जो सिर्फ जीवन में उम्मीद बंधाने का ही काम करती है। व्यक्ति को दुनियादारी की बात भूल कर पहले स्वयं को पहचाना चाहिए कि वो क्या है? अगर व्यक्ति स्वयं की पहचान कर अपने में समाए दोष, दुर्गुणों को पहचान कर उन्हें दूर करने का प्रयास करेगा। तो उसे जीवनकाल में कभी घोर अंधकार का सामना नहीं करना पड़ेगा। आज आत्मा और चेतना को जगाने की जरूरत है। ऐसे में हर दिन हर घड़ी गुणों की क्षति हो रही है और अवगुण हर तरफ हावी है। संसार में ऐसी कोई सी बुराई नहीं है जिसे दूर नहीं किया जाए।
मुनिश्री ने कही कुछ खास बातें
अगर जीवन का सच्चा बीमा कराना है तो भगवान के मंदिर जाओ, जिनालय जाओ, जहां सतगुरु एजेंट के रुप में बैठे है। इन गुरुजनों के पास एक से बढ़कर एक पालिसी है। ये गुरुवर अपने हिस्से का कमीशन भी उस भक्त को ज्ञान के रुप में देते है जो बीमा कराने आया है।
कई लोग चेन स्मोकर होते है, कई बुराइयों को अपनाए बैठे है। इसका अंत विनाश के सिवाय कुछ भी नहीं है। व्यक्ति को इन दुर्गुणों के हाथों हारने की बजाए इन्हें हराना चाहिए। हमें दुर्बलता के दास बनने के स्थान पर इस पर जीत हासिल कर सम्राट बनना चाहिए।
अगर जीना है तो हमेशा जागते रहना पड़ेगा। आपकी जरा सी चूक हानि का कारण बन सकती है। दुर्बलता, दुर्गुण, दोष, अहंकार, अहम जैसी तमाम बुराइयों से दूर करने का माध्यम गुरुजन है। जो हमेशा से ही मानव को जगाते आए है।
आज का व्यापारी अपने दुकान पर ग्राहकों से अलग व्यवहार करता है और घर में घुसते ही इस व्यवहार को बदल लेता है। दुकान पर व्यापारी संयम, धीरज, धैर्य अपनाता है और घर आकर अपना आपा खोने लगता है। ऐसे लोगों को घर और बाहर दोनों जगह संयम और धैर्य रखने की आदत अपने जीवन में उतारना चाहिए।