डाॅक्टर, वैद्य भी पंचइंद्रिय के विषय से हमें मुक्त नहीं कर सकते हैं: अाचार्यश्री

खुरई-वर्तमान समय में व्यक्ति को मोह रूपी सर्प ने अपने आगोश में ले लिया है। मोहवश व्यक्ति पंचइन्द्रिय के विषयों से मुक्त नहीं हो पा रहा है। वह निरंतर 'नीम' के कड़वे पत्ते का सेवन कर रहा है। उसे नीम के पत्ते भी अब मिठास देने लग गए है। वह उसका अभ्यस्त होता जा रहा है।
इन्द्रियों के रसपान करने से अब उसे सर्प का जहर भी असर नहीं कर रहा है। यह बात नवीन जैन मंदिर में प्रवचन देते हुए अाचार्यश्री विद्यासागर महाराज ने शुक्रवार काे कही। उन्हाेंने कहा कि डाॅक्टर, वैद्य भी पंचइंद्रिय के विषयों से हमें मुक्त नहीं कर सकते। एक मात्र गुरू की वाणी एवं जिनवाणी के पठन-पाठन, स्वाध्याय से ही पंचइंद्रिय के विषयों से मुक्ति मिल सकती है गुरू तो केवल रास्ता बता सकते हैं, किसी के साथ जबरदस्ती नहीं कर सकते। गुरू तो देते-देते ही हैं, लेते कुछ भी नहीं। व्यक्ति के अवगुण को समाप्त करने का सतत प्रयास करते है। सप्त व्यसन से दूर रहकर ही यह संसारी प्राणी अपना एवं अपनी समाज, नगर, राष्ट्र के कल्याण में सहभागिता कर सकता है।
उन्होंने कहा अभिप्राय अनुसार ही अनुभूति होती है अतः सर्वप्रथम तुम्हें अपने परिणामों का निरीक्षण करना है कि अभिप्राय(इंटेंशन) क्या है, तुमने अभी तक पूजा, पाठ, जाप, चिन्तन आदि क्या-क्या किया महत्व इसका नहीं। क्यों किया, किस अभिप्राय से किया महत्व इसका है। अभिप्राय सम्यक है तो लड़ाई में भी कर्म निर्जरा है। जैसे- सूकर मुनि की रक्षा के लिए सियार से भी लड़ बैठा था, किंतु विपरीत अभिप्राय रखना ठीक नहीं है, वह कर्म बंध का ही करण है।
उन्हाेंने कहा कि अभिप्राय ठीक है तो नरकों में भी सम्यक्त्व सुख पा लेता है किंतु अभिप्राय गलत होने से स्वर्गों में भी दुखी रहता है। नींव मजबूत हो तो ऊंची इमारत को भी कोई हिला नहीं सकता, जड़ मजबूत हो तो तरू को तेज आंधी भी गिरा नहीं सकती। मैं आत्म तत्व ही हूँ, सुख स्वरूप ही हूं, यह अभिप्राय में है तो दुःखी होगा ही कैसे? अपने को सुख स्वभावी मानना ही सुखी होने का उपाय है।
उन्होंने कहा कि अभिप्राय ठीक रखने में कुछ त्याग नियम की भी आवश्यकता नहीं है मात्र विचारों का परिवर्तन करना है गलत सोच को सही करना है, सकारात्मक बनाना है जिसमें आत्मा का हित निहित हो वही सोचना है। व्यर्थ का सोचना ही नहीं, यह हमारे हाथ में है। हमारे भावों के सिवा हमारे हाथ में है ही क्या? तनाव करने से दुःख के सिवा आज तक और क्या मिला? विकल्प करना बहुत सरल है किंतु उसका फल भोगना बहुत कठिन है। खुद को विकल्पों की आग में मत झुलसा, शांत कर स्वयं को, आते जाते विचारों को साक्षी भाव से देख। तन्मय मत हो, धीरे-धीरे विकल्प की लहरें शांत हो जायेंगी।
तुम जानते हो न चेतन! जब सरोवर तरंगायित रहता है तो उसमें स्वयं का चेहरा नहीं दिखता जब लहरें शांत हो जाती हैं तब चेहरा स्पष्ट दिखने लगता है अपना घाटा मत करो। अभिप्राय स्वयं को ही ठीक करना है यह स्वाधीन पुरुषार्थ है। आचार्यश्री की आहाराचार्य दानवीर, देवेन्द्र, जितेन्द्र एवं धर्मेंद्र खड्डर परिवार में संपन्न हुई। श्री सहस्त्रकूट जिनालय में 1000 जिनबिम्ब मूर्तियों की स्थापना की जाएगी।
      संकलन अभिषेक जैन लुहाड़ीया रामगंजमंडी

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