खुरई-व्यक्ति कितना भी अमीर क्यों न हो जाए उसको हमेशा मृदु एवं दयालु होना चाहिए। पैसे की गर्मी तो कभी नहीं बताना चाहिए। यदि उसे अपना बड़प्पन बताना ही है तो अपना वैराग्य, अपनी तपश्चर्या, तप, त्याग का बताना चाहिए। यह बात नवीन जैन मंदिर में प्रवचन देते हुए आचार्यश्री विद्यासागर महाराज ने कही।
उन्होंने कहा कि माता-पिता अपने तीन वर्ष की उम्र से भी कम के नौनिहाल बच्चों को विद्या अध्ययन करने भेज देते हैं जो ठीक नहीं। बस्ते का बोझ, कोचिंग, होमवर्क के तले नौनिहाल बच्चों का बचपन छिन जाता है। माता-पिता को अतिमहत्वकांक्षी नहीं होना चाहिए। उन्हाेंने कहा कि जो भी व्यक्ति परोपकार के कार्यों, जिनधर्म प्रभावना, मंदिर के निर्माण, उसके रखरखाव एवं समूची व्यवस्था आदि में संलग्न रहता है वह व्यक्ति की तरह ही नहीं वरन महात्मा की तरह दृष्टिगोचर होने लगता है। व्यक्ति का जीवन बेहद तनावपूर्ण होता जा रहा है। प्रत्येक वस्तु बेस्वाद एवं नीरस नजर आने लगी है। स्वार्थ, मायाचारी, छलकपट का प्रादुर्भाव हो रहा है। कदम-कदम पर धोखा एवं आत्मीयता नदारद होती जा रही है।
जितनी-जितनी व्यक्ति की महत्वाकांक्षा बढ़ रही है उतनी-उतनी ही हमारे जीवन से सुख-शांति का अभाव होता जा रहा है। लाखों, करोड़ों रुपया अर्जन करने के बाद भी अमन, चैन, नींद सबकुछ गायब होती जा रही है। संस्कार विहीन परिवेश हमें गर्त में ले जा रहा है। भारतीय संस्कृति की रक्षा करना भी दूभर हो गया है।
आचार्यश्री ने कहा कि धर्म कोई आम की गुठली जैसा नहीं है जिसे बोने पर कई वर्ष बाद वृक्ष पल्लवित होकर फिर आम खाने को मिले ऐसा नहीं है। धर्म तो सरोवर में तैरने जैसा है तत्क्षण ही तपन मिटती है, शांति महसूस होती है और देह का मैल भी धुलने लगता है। धर्म बाद की बात नहीं करता 'कभी' भी नहीं वह तो 'अभी' की बात करता है। जो शांति और आनंद चाहिए था वह सभी अभी ही मिल जाता है उधार का काम ही नहीं, प्रतीक्षा की बात ही नहीं क्योंकि प्रतीक्षा में भी आशा है। उन्हाेंने कहा कि आशा है तो पीड़ा है आज के इस यांत्रिक युग में हर व्यक्ति अपने परिश्रम का तत्क्षण फल चाहता है। सांसारिक कार्यों में तो फिर भी फल पाने में देर हो जाती है, क्योंकि हर कार्य को करने में वक्त लगता है फिर कार्य के बाद फल मिलता है। जैसे मजदूर को पारिश्रमिक फल में प्रतीक्षा करनी ही पड़ती है किंतु धर्म एक अनुभूति है, स्वयं से साक्षात्कार है, इष्ट का मिलन कराने वाला है धर्म। उन्हाेंने कहा कि आपका आपसे मिलन होते ही पाप रहता ही कहां। सूर्य के उदित होते ही रात का घना तमस ठहर पाता है कहां।
वस्तु के स्वभाव में रमना ही धर्म है अथवा जो इष्ट तक पहुंचा दे उसी का नाम धर्म है। सर्व कार्यों में धर्म को सर्वोपरि दर्जा इसलिए दिया है क्योंकि यह तत्क्षण ही सुखद अनुभूति देता है। पवित्र विचार का नाम धर्म है। उन क्षणों में पाप वर्गणाओं का आना उस पल ही रुक जाता है क्योंकि पवित्र विचारों का आभामण्डल चारों तरफ फैल जाता है जिससे पाप का प्रवेश असंभव हो जाता है।
संकलन अभिषेक जैन लुहाड़ीया रामगंजमंडी
बस्ते का बोझ, होमवर्क के तले बच्चों का बचपन छिन जाता है, माता-पिता को अतिमहत्वाकांक्षी नहीं होना चाहिए: आचार्यश्री
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Tuesday, January 08, 2019
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