जबलपुर-आचार्य श्री विधासागर जी महाराज ने कहा प्रकृति मे पूर्वी व पश्चिमी ध्रुव दोनो की माप समान होती है। मनुष्य के प्राण भी इसी रूप मे समान होते है। यदि थोड़ा सा अंतर आने लगता है तो फिर पूर्णायु का स्मरण करना पड़ता है। यही प्राणों का वैचित्र्य है। नियम के बाहर रहना नही चाहते और भीतर भी नही रह सकते। वस्तुतः जितना आवश्यक , उतना ही होना चाहिए। खून का यदि अधिक संचार हो जावे तो भी गड़बड़ और यदि कम संचार हो जावे तो भी गड़बड़।
आचार्य श्री ने उदगार प्रगट करते कहा स्वास्थ्य रक्त संचार पर आधारित होता है। इसमें जरा सा भी अंतर होने पर डॉक्टर के पास जाना पड़ता है। अब सवाल उठता है यदि डॉक्टर का स्वास्थ्य खराब हो तो क्या कहेगे? मरीजो को देखते देखते उन पर बुरा प्रभाव पड़ने लगता है। आपके प्राण बचाने के लिये उन्हे अधिक परिश्रम करना पड़ता है। हा यदि भावो की चिकित्सा करें तो भी बच सकते है। संतुलन का तरीका बाहर की बजाय भीतर अधिक है। प्राणों का खेल शरीर पर आश्रित होने पर भी आत्माश्रित अधिक है। आप सोचते है पैसों से मिल जाए ठीक ठाक हो जाए। लेकिन उससे ठीक ठाक जरूर हो जाता है। उन प्राणों का संबंध आत्मत्व से भी रहता है। प्राणों का धारण करने वाला प्राणी कहलाता है।
संकलन अभिषेक जैन लुहाड़िया रामगंजमण्डी
आचार्य श्री ने उदगार प्रगट करते कहा स्वास्थ्य रक्त संचार पर आधारित होता है। इसमें जरा सा भी अंतर होने पर डॉक्टर के पास जाना पड़ता है। अब सवाल उठता है यदि डॉक्टर का स्वास्थ्य खराब हो तो क्या कहेगे? मरीजो को देखते देखते उन पर बुरा प्रभाव पड़ने लगता है। आपके प्राण बचाने के लिये उन्हे अधिक परिश्रम करना पड़ता है। हा यदि भावो की चिकित्सा करें तो भी बच सकते है। संतुलन का तरीका बाहर की बजाय भीतर अधिक है। प्राणों का खेल शरीर पर आश्रित होने पर भी आत्माश्रित अधिक है। आप सोचते है पैसों से मिल जाए ठीक ठाक हो जाए। लेकिन उससे ठीक ठाक जरूर हो जाता है। उन प्राणों का संबंध आत्मत्व से भी रहता है। प्राणों का धारण करने वाला प्राणी कहलाता है।
संकलन अभिषेक जैन लुहाड़िया रामगंजमण्डी
