खुरई- प्राचीन जैन मंदिर में विराजमान मुनिश्री अभयसागरजी महाराज ने विशाल धर्म सभा को संबोधित किया। कहा कि जिसके जीवन में मानवता की सुवास बहती हो, जो दूसरे का भला करने की भावना रखता है, ऐसा जीवन मानव जीवन कहा जाता है। आए दिन हम समाचार पत्रों में पढ़ते हैं कि फलां जगह बस, ट्रेन, बाढ़ या भूकंप से दुर्घटना हुई। आसपास के लोग वहां पहुंचे और घायलों को अस्पताल पहुंचाने की बजाय, उनका कीमती सामान लूटने में जुट गए। यह मानवता का घिनौना रूप है। मानव स्वयं जी रहा है, पर मानवता मर रही है। मानव की शक्लों में आज करोड़ों आदमी घूम रहे हैं, पर उनमें श्रेष्ठ मानव कितने होंगे, यही चिंतन का विषय है।
मुनिश्री ने कहा कि हम किसी से पूछते हैं, आप कौन हैं तो वह कहेगा कि मैं हिन्दू हूं, मुसलमान हूं, जैन हूं, पारसी हूं, सिख हूं या ईसाई हूं। वह यह नहीं कहेगा कि मैं मानव हूं। भारत के ऋषि-मुनियों ने मानव शरीर की अपेक्षा मानवता को महत्व ज्यादा दिया है। उन्होंने कहा है कि मनुष्यत्व से बढ़कर इस दुनिया में कुछ भी नहीं है। मानव जीवन में जहां मनुष्यत्व की उपेक्षा करके धन को, सांसारिक साधनों को, जाति व संप्रदायों को महत्व दिया जाता है, वहां मानवता चकनाचूर हो जाती है। आज हमें अपने आपको टटोलना होगा, आत्म-निरीक्षण करना होगा कि कहीं हम मानव के रूप में दानव का, पशु जैसा कृत्य तो नहीं कर रहे हैं। कहीं हम दूसरों के अधिकार तो नहीं छीन रहे हैं। हम अपने कर्तव्य पालन का कितना निर्वाह कर रहे हैं। रिश्वत लेकर कहीं हम देशद्रोह का कार्य तो नहीं कर रहे हैं। हमारे सामने मानवता और दानवता दोनों खड़ी हैं। यदि मानवता को अपनाएँगे, तो हमारा जीवन चमक उठेगा, धन्य हो जाएगा।
मुनिश्री ने कहा कि आवश्यकता से अधिक कपड़ा होने पर क्या ठंड से ठिठुरते हुए मानव को दे देने का मन होता है। क्या किसी गरीब विधवा बहन को अभाव से पीड़ित होता देखकर उसकी यथाशक्ति मदद करने का जी मचलता है। क्या किसी अनाथ, लाचार और अभावग्रस्त व्यक्ति के दुःख दर्द मिटाने के लिए अथवा उसके आँसू पोंछने के लिए हमारी भावनाएं उमड़ती हैं। यदि ऐसा है, तो समझना हमारी धमनियों में अभी मानवता की करूणा के सुसंस्कार दौड़ रहे हैं, जिसकी नसों में मानवता की करूणा का स्पंदन होता रहता है, वही व्यक्ति सच्चा मानव कहलाने योग्य है।
मुनिश्री ने कहा कि हम किसी से पूछते हैं, आप कौन हैं तो वह कहेगा कि मैं हिन्दू हूं, मुसलमान हूं, जैन हूं, पारसी हूं, सिख हूं या ईसाई हूं। वह यह नहीं कहेगा कि मैं मानव हूं। भारत के ऋषि-मुनियों ने मानव शरीर की अपेक्षा मानवता को महत्व ज्यादा दिया है। उन्होंने कहा है कि मनुष्यत्व से बढ़कर इस दुनिया में कुछ भी नहीं है। मानव जीवन में जहां मनुष्यत्व की उपेक्षा करके धन को, सांसारिक साधनों को, जाति व संप्रदायों को महत्व दिया जाता है, वहां मानवता चकनाचूर हो जाती है। आज हमें अपने आपको टटोलना होगा, आत्म-निरीक्षण करना होगा कि कहीं हम मानव के रूप में दानव का, पशु जैसा कृत्य तो नहीं कर रहे हैं। कहीं हम दूसरों के अधिकार तो नहीं छीन रहे हैं। हम अपने कर्तव्य पालन का कितना निर्वाह कर रहे हैं। रिश्वत लेकर कहीं हम देशद्रोह का कार्य तो नहीं कर रहे हैं। हमारे सामने मानवता और दानवता दोनों खड़ी हैं। यदि मानवता को अपनाएँगे, तो हमारा जीवन चमक उठेगा, धन्य हो जाएगा।
मुनिश्री ने कहा कि आवश्यकता से अधिक कपड़ा होने पर क्या ठंड से ठिठुरते हुए मानव को दे देने का मन होता है। क्या किसी गरीब विधवा बहन को अभाव से पीड़ित होता देखकर उसकी यथाशक्ति मदद करने का जी मचलता है। क्या किसी अनाथ, लाचार और अभावग्रस्त व्यक्ति के दुःख दर्द मिटाने के लिए अथवा उसके आँसू पोंछने के लिए हमारी भावनाएं उमड़ती हैं। यदि ऐसा है, तो समझना हमारी धमनियों में अभी मानवता की करूणा के सुसंस्कार दौड़ रहे हैं, जिसकी नसों में मानवता की करूणा का स्पंदन होता रहता है, वही व्यक्ति सच्चा मानव कहलाने योग्य है।
दीन-दलित एवं पीड़ितों की सेवा ही ईश्वर की पूजा है
मुनिश्री ने कहा कि जिसमें भाईचारा होता है, जो दूसरों का खिलाना जानता है, वह देव होता है, जिसमें परस्परता नहीं होती, जो स्वार्थी होता है, जो स्वयं खाना जानता है, पर खिलाना नहीं जानता, वह दानव होता है। महान राजनीतिज्ञ चाणक्य ने लिखा है, जो स्वयं खाना जानता है और जनता को सुख-सुविधा देता है, वह व्यक्ति राजनीति में सफल हो सकता है और जो केवल स्वयं ही खाना जानता है, वह कभी सफल नहीं होता। दुःखी को देखकर जिसके मन में करूणा का झरना फूट पड़ता है। किसी के आंसुओं को पोंछकर उन्हें मुस्कान में बदल देता है, वहीं मानव कहलाने का अधिकारी है। देह में प्राण नहीं है तो उस देह का क्या मूल्य है। मानव में यदि मानवीय गुण नहीं हैं, तो उसमें और पशु में क्या अंतर है। स्वयं का सर्वस्व अर्पण करके जो दीन-दलित की सेवा करता है, वही मानवता का सच्चा पुजारी है। ज्ञानी कहते है, दीन-दलित एवं पीड़ितों की सेवा ही ईश्वर की पूजा है।
संकलन अभिषेक जैन लुहाड़ीया रामगंजमंडी
मुनिश्री ने कहा कि जिसमें भाईचारा होता है, जो दूसरों का खिलाना जानता है, वह देव होता है, जिसमें परस्परता नहीं होती, जो स्वार्थी होता है, जो स्वयं खाना जानता है, पर खिलाना नहीं जानता, वह दानव होता है। महान राजनीतिज्ञ चाणक्य ने लिखा है, जो स्वयं खाना जानता है और जनता को सुख-सुविधा देता है, वह व्यक्ति राजनीति में सफल हो सकता है और जो केवल स्वयं ही खाना जानता है, वह कभी सफल नहीं होता। दुःखी को देखकर जिसके मन में करूणा का झरना फूट पड़ता है। किसी के आंसुओं को पोंछकर उन्हें मुस्कान में बदल देता है, वहीं मानव कहलाने का अधिकारी है। देह में प्राण नहीं है तो उस देह का क्या मूल्य है। मानव में यदि मानवीय गुण नहीं हैं, तो उसमें और पशु में क्या अंतर है। स्वयं का सर्वस्व अर्पण करके जो दीन-दलित की सेवा करता है, वही मानवता का सच्चा पुजारी है। ज्ञानी कहते है, दीन-दलित एवं पीड़ितों की सेवा ही ईश्वर की पूजा है।
संकलन अभिषेक जैन लुहाड़ीया रामगंजमंडी

