आचार्यश्री के गृहस्थ जीवन बड़े भाई और बालसखा ने उनके बचपन की यादें दैनिक भास्कर से साझा की..
आचार्यश्री का जन्म कर्नाटक के बेलगांव जिले के सदलगा ग्राम में 10 अक्टूबर 1946 (शरद पूर्णिमा) को हुआ था। तिथि अनुसार शरद पूर्णिमा पर ही आचार्यश्री के भक्त उनका जन्मदिवस मनाते हैं।
जब विद्याधर छोटा था, हाथों के बल घिसटने लगा तब अक्का (मां) उसको प्यार से पिल्लू कहकर बुलाती थी। दक्षिण में छोटे बच्चों को प्यार से पिल्लू कहते हैं। वह जन्म से ही परिवारजनों का और पड़ोसियों का लाड़ला था। उसको जो भी देखता, वो विद्याधर को खिलाए बिना नहीं रहता। दिनभर कोई न कोई उसे गोदी में उठाकर प्यार करता ही रहता था। पड़ोसियों ने प्यार-प्यार में उसे गिनी कहना प्रारंभ कर दिया था। गिनी शब्द कन्नड़ भाषा का है, जिसे हिंदी में तोता कहते हैं। जब वह नौवीं में था तब विनोबा भावे हमारे गांव के पास भू-दान आंदाेलन में आए थे। दोस्तों के साथ वह भी साइकिल से गया। दोस्त तो सर्कस देखने लगे, लेकिन वह विनोबा भावे को सुनने गया था। वहां से आने के बाद स्कूल जाना बंद कर दिया। पिताजी और शिक्षकों ने डांटा, तो कहने लगा- 'हमारी लौकिक शिक्षा जितनी होनी थी, हो गई। विनोबा जी दूसरों के लिए अपना जीवन लगा रहे हैं। मैं भी उन्हीं की तरह दूसरों के लिए भी कुछ करूंगा।' उसके बाद उसका मन परिवर्तित हो गया।
विद्याधर को बचपन से कैरम एवं शतरंज का शौक था। वह इतना अभ्यस्त हो गया कि बड़ों को भी हरा देता। जब कभी हार जाता तो अकेले बैठकर उन चालों पर विचार करता। फिर दोबारा जीतकर ही मानता था। विद्याधर जब 13-14 साल का था, तब मेरे साथ खेत पर जाता। वहां काम करने वाला एक व्यक्ति घोड़ा लेकर आता था। उसका घोड़ा देखकर विद्याधर उस पर बैठकर धीरे-धीरे घुड़सवारी भी सीख गया। जब विद्याधर 15 वर्ष का हुआ, तो वाचनालय में जाकर महापुरुषों की आत्मकथाएं पढ़ता था। फिर घर आकर सभी को सुनाता था। उस जमाने में रेडियो नया-नया आया था। विद्याधर आकाशवाणी, ऑल इंडिया रेडियो तथा बीबीसी लंदन स्टेशन के समाचार सुनता था। और आखिर में राजस्थान में उनकी मुनि दीक्षा हुई, वे विद्यासागरजी हो गए।
विद्याधर को बचपन से कैरम एवं शतरंज का शौक था। वह इतना अभ्यस्त हो गया कि बड़ों को भी हरा देता। जब कभी हार जाता तो अकेले बैठकर उन चालों पर विचार करता। फिर दोबारा जीतकर ही मानता था। विद्याधर जब 13-14 साल का था, तब मेरे साथ खेत पर जाता। वहां काम करने वाला एक व्यक्ति घोड़ा लेकर आता था। उसका घोड़ा देखकर विद्याधर उस पर बैठकर धीरे-धीरे घुड़सवारी भी सीख गया। जब विद्याधर 15 वर्ष का हुआ, तो वाचनालय में जाकर महापुरुषों की आत्मकथाएं पढ़ता था। फिर घर आकर सभी को सुनाता था। उस जमाने में रेडियो नया-नया आया था। विद्याधर आकाशवाणी, ऑल इंडिया रेडियो तथा बीबीसी लंदन स्टेशन के समाचार सुनता था। और आखिर में राजस्थान में उनकी मुनि दीक्षा हुई, वे विद्यासागरजी हो गए।
• जैसा आचार्य विद्यासागरजी के गृहस्थ जीवन के बड़े भाई महावीर अष्टगे और उनके बालसखा मारुति मढ़िवाल (सदलगा, कर्नाटक) ने पुनीत जैन को बताया
मां ने पिल्लू, पड़ाेसियों ने गिनी नाम दिया, विनोबा भावे को सुना तो पढ़ाई छोड़ दूसरों के लिए जीने की ठान ली
आचार्यश्री बचपन और अब
आचार्यश्री के बाद उनके दोनों छोटे भाई, दोनों बहनों और फिर माता-पिता ने भी वैराग्य का रास्ता अपना लिया।
पारिवारिक जिम्मेदारियों के चलते बड़े भाई महावीरजी को न चाहते हुए भी गृहस्थ जीवन अपनाना पड़ा।
आत्मीय विद्याधर से मैं पहली कक्षा से परिचित हूं, तभी से हमारी मित्रता है। हम दोनों साथ पढ़े, हालांकि उम्र में मैं उनसे चार साल बड़ा हूं। जब हम चौथी कक्षा में थे, तब विद्याधर के साथ गांव शेडवाल गया था। वहां पर आचार्य शांतिसागर जी महाराज का संघ विराजमान था, वहां हम दोनों ने आचार्यश्री के प्रवचन सुने थे। मैं जन्म से अजैन होते हुए भी गुरु महाराज और विद्वानों के प्रवचनों से प्रभावित हो गया था। इसके बाद मैंने बचपन में ही जैनधर्म को स्वीकार कर लिया था।
बचपन में मैं उनके साथ शाम को हर रोज जैन मंदिर जाया करता था और वहां स्वाध्याय में हम दोनों बैठा करते थे। जब पंडित जी गैरहाजिर रहे, तो विद्याधर शास्त्र-गादी पर बैठकर शास्त्र पढ़ते और सभी लोग सुनते थे। एक बार बोरगांव में मुनिश्री नेमिसागर जी की समाधि होने तक 6-7 दिन वहीं रुककर उनकी सेवा में लगे रहे। उनकी समाधि देखकर विद्याधर का वैराग्य बहुत ही चरम सीमा तक बढ़ गया था। एक दिन विद्याधर और मैंने चर्चा की और फैसला हो गया कि जयपुर में विराजमान आचार्य श्री देशभूषण जी के पास जाना है। मैं किसी कारण से नहीं जा सका। उनके पास पैसे कम थे, तो मैंने 100 रु. दिए। 30 जून 1968 को विद्याधर की मुनि दीक्षा हो गई, तब मैं विद्याधर के परिवार के साथ अजमेर गया। विद्यासागर जी महाराज ने कहा-'मारुति के सहयोग से मैं यहां तक आ पाया हूं' तब महावीर जी ने मुझे सौ रुपया दे दिया और कहा- तुम विवाह के फंदे में मत पड़ना और गुरु श्री ज्ञानसागर जी के पास ले जाकर आजीवन ब्रह्मचर्य का व्रत दिला दिया। मैं धन्य हो गया।
संकलन अभिषेक जैन लुहाड़िया रामगंजमंडी
आचार्यश्री बचपन और अब
आचार्यश्री के बाद उनके दोनों छोटे भाई, दोनों बहनों और फिर माता-पिता ने भी वैराग्य का रास्ता अपना लिया।
पारिवारिक जिम्मेदारियों के चलते बड़े भाई महावीरजी को न चाहते हुए भी गृहस्थ जीवन अपनाना पड़ा।
आत्मीय विद्याधर से मैं पहली कक्षा से परिचित हूं, तभी से हमारी मित्रता है। हम दोनों साथ पढ़े, हालांकि उम्र में मैं उनसे चार साल बड़ा हूं। जब हम चौथी कक्षा में थे, तब विद्याधर के साथ गांव शेडवाल गया था। वहां पर आचार्य शांतिसागर जी महाराज का संघ विराजमान था, वहां हम दोनों ने आचार्यश्री के प्रवचन सुने थे। मैं जन्म से अजैन होते हुए भी गुरु महाराज और विद्वानों के प्रवचनों से प्रभावित हो गया था। इसके बाद मैंने बचपन में ही जैनधर्म को स्वीकार कर लिया था।
बचपन में मैं उनके साथ शाम को हर रोज जैन मंदिर जाया करता था और वहां स्वाध्याय में हम दोनों बैठा करते थे। जब पंडित जी गैरहाजिर रहे, तो विद्याधर शास्त्र-गादी पर बैठकर शास्त्र पढ़ते और सभी लोग सुनते थे। एक बार बोरगांव में मुनिश्री नेमिसागर जी की समाधि होने तक 6-7 दिन वहीं रुककर उनकी सेवा में लगे रहे। उनकी समाधि देखकर विद्याधर का वैराग्य बहुत ही चरम सीमा तक बढ़ गया था। एक दिन विद्याधर और मैंने चर्चा की और फैसला हो गया कि जयपुर में विराजमान आचार्य श्री देशभूषण जी के पास जाना है। मैं किसी कारण से नहीं जा सका। उनके पास पैसे कम थे, तो मैंने 100 रु. दिए। 30 जून 1968 को विद्याधर की मुनि दीक्षा हो गई, तब मैं विद्याधर के परिवार के साथ अजमेर गया। विद्यासागर जी महाराज ने कहा-'मारुति के सहयोग से मैं यहां तक आ पाया हूं' तब महावीर जी ने मुझे सौ रुपया दे दिया और कहा- तुम विवाह के फंदे में मत पड़ना और गुरु श्री ज्ञानसागर जी के पास ले जाकर आजीवन ब्रह्मचर्य का व्रत दिला दिया। मैं धन्य हो गया।
संकलन अभिषेक जैन लुहाड़िया रामगंजमंडी

