खुरई-प्राचीन जैन मंदिर में मुनिश्री अभयसागर जी महाराज ने प्रवचन देते हुए कहा कि वाणी अपनों को पराया और परायों को अपना बना देती है। संसार में चार प्रकार के स्वभाव वाले व्यक्ति पाए जाते हैं। एक संत स्वभावी, दूसरे सज्जन स्वभावी, तीसरे स्वजन स्वभावी एवं चाैथे दुर्जन स्वभावी। जो संत स्वभावी होते हैं वे दूसरों के अन्याय की बात हवा पर लिखते हैं अर्थात एक क्षण भी मन में नहीं रखते तत्काल भूल जाते हैं। दूसरे सज्जन स्वभावी होते हैं जो अपनों के द्वारा किए गए अन्याय को पानी पर लिखते हैं जो एक घंटे में भूल जाते हैं। तीसरे स्वजन स्वभावी होते हैं जो अपनों की बात रेत पर लिखते हैं जो 15 दिन के अंदर भूल जाते हैं और चाैथे प्रकार के दुर्जन स्वभाव के होते हैं जो अपनों के अन्याय की बात पत्थर पर लिखते हैं जो बहुत दिनों तक नहीं भूल पाते। उन्हाेंने कहा कि आप संत स्वभावी नहीं बन सकते तो कम से कम दुर्जन स्वभावी बनने का अपराध कभी न करें। न्याय की जगह समझौता अपनाकर अपने घर को मंदिर बनाएं। परिवार के प्रत्येक सदस्य को अपने परिवार के दोषों को पीना या छिपाना चाहिए। उन्हें बढ़ाना या किसी को दिखाना नहीं चाहिए। परिवार का प्रत्येक सदस्य बाल्टी के छिद्र जैसा नहीं बनता कि जो कुटुम्ब की प्रसन्नता के जल को बाहर निकल जाने दे। वह तो बनता है जमीन के छिद्र जैसा कि जो कुटुम्ब के किसी भी सदस्य के किसी भी प्रकार के दोषों को पी जाता है, पचा जाता है, अपने में समा लेता है। उन्हाेंने कहा कि क्यों हर व्यक्ति की कमियां गिनते फिरते हो।
इस जहान में जब कि तुम इस बात को जानते हो कि भगवान नहीं इंसान बसते हैं इस जहान में। एक बार इंसान ने कोयल से कहा तू काली न होती तो कितनी अच्छी होती, फिर सागर से कहा तेरा पानी खारा न होता तो कितना अच्छा होता, फिर गुलाब से कहा तुझमें कांटे न होते तो कितना अच्छा होता। तब तीनों एक साथ बोले हे इंसान। तुझमें दूसरों की कमियां देखने की आदत न होती तो तू कितना अच्छा होता।
मुनिश्री ने कहा कि एक बात अनुभव की है कि 'वाणी अपनों को पराया और परायों को अपना बना देती है।' बड़ी खेदजनक बात है व्यक्ति को झूठी प्रशंसा से बर्बाद होना अच्छा लगता है, लेकिन सच्ची निंदा से लाभ उठाना अच्छा नहीं लगता। स्वयं को उठाने की नहीं बल्कि गिराने की कोशिश में लगा रहता है। सद्भावनाओं को अपनाकर ही घर को स्वर्ग एवं मंदिर बनाया जा सकता है।
संकलन अभिषेक जैन लुहाड़ीया रामगंजमंडी
