*प्रवचन प्रवाहिका-प्रज्ञा पद्मिनी आर्यिका रत्न 105 श्री विज्ञमति माताजी*
टोंक,
🌈दस धर्मों के प्राक्कथन की चतुर्थ दिवसीय बेला में *परम पूज्या अध्यात्म योगिनी गणिनी आर्यिका 105 श्री विशुद्धमति माताजी की ह्रदय प्रिय शिष्या आर्यिका रत्न 105 श्री विज्ञमति माताजी* ने अपने वक्तव्य में कहा की- आज मौसम खुला खुला सा प्रतीत होता है ,मानो उत्तम शौच के इस पावन पर्व पर प्रकृति ने भी शुचिता को धारण किया हैं, तो क्यों न हम भी करें। क्योकि आज सफाई का दिन है, जब तक अंतरंग के मल का विसर्जन नहीं होगा, तब तक क्षुद्रपना खत्म नहीं होगा और शुचिता का जन्म नहीं होगा ।
🌈कपड़े धोने के लिये समता रूपी जल की आवश्यकता होती है, लेकिन मन रूपी कपड़े को धोने के लिए हमें समता रूपी जल की आवश्यकता होती हैं, क्योकि जहां पवित्रता है वही धर्मो का जन्म है।
आज का दिन प्रवृत्ति से निवृति का दिन है, आज का दिन संयोग से वियोग का दिन है, आज का दिन परित्याग का दिन है ,क्योंकि जितना लाभ होगा उतना ही लोभ होगा।
🌈आर्यिका माताजी ने कहा छटपटाता केवल वही विज्ञात्मा है, जिसने देह और देही के जुदेपने को समझ लिया हो ,जिसके स्वात्म संवित्ति का नित्य उदय होने लगता है, उसे सुलभ से सुलभ वस्तु भी अरुचिकर सी लगती है और वो भव्यात्मा ही लोभ का त्याग कर सकता है । इसलिए हे विज्ञातमन! प्रज्ञा के चक्षुओं को उजागर कर और परमात्मा की श्रेणी को प्राप्त कर।
🌈लाभ से जब लोभ का जन्म होता है, तो मोती( रत्न ) भी कोयले का रूप ले लेते है, और जब लोभ के अभाव में शुचिता का जन्म होता है, तो वो ही कोयले मोती का रूप धारण कर लेते हैं।
🌈 लोभ स्वयं इंगित करता है ,लो-लोक , भ-भटकन
इसका आशय हैं, जो जीव को इस लोक मे भटकावें, भ्रमणशील बनावे, वही लोभ है।
🌈लोभ ऐसा तस्कर है जो SILENT है। क्रोध, मान, माया तो प्रकट हो जाते है,किंतु लोभ मनुष्य के मन के अंदर ही अंदर भरता रहता है, फिर भी उसका मन अग्नि के कुंड की तरह कभी भरता नहीं हैं।
🌈पूज्या माताजी ने पुनः संबोधित करते हुए कहा की- यदि पाप का निरोध हो गया हैं तो सम्पदा निष्प्रयोजनीय हैं, और पाप का आस्रव है तो भी सम्पदा का क्या प्रयोजन ? समय रहते ही यदि हम स्वयं लोभ का परिहार कर संपति का त्याग कर दें, तो शायद वो चक्रवर्ती ब्याज के साथ हमें पुनः प्राप्त हो सकती है।
🌈लंगर से बंधी नाव क्या कभी गंतव्य स्थान तक पहुँचा सकती है ?नहीं। ठीक वैसे ही हमारी आत्मा रूपी नाव, जो राग द्वेष रूपी लंगर से बंधी है ,वो कभी मोक्ष रूपी गंतव्य को प्राप्त नहीं कर सकती। ये कषाय रूपी लंगर ही तो हमारी आत्मा को विकलांग कर देते हैं। प्रश्न उठता है कैसे ? उत्तर मिलता है कि क्रोध से युक्त कुछ देखता नहीं, मान से युक्त किसी की सुनता नहीं, मायावी की जुबान (रसना) का कोई भरोसा नहीं है, और लोभी बिना नाक का नकटा होता है, उसे किसी की मान प्रतिष्ठा का कोई ख्याल नहीं होता, जैसे भी मिले बस धन लाओ। इस तरह ये विभाव परिणीति हमारी आत्मा को विकलांग बना देती हैं।
🌈अंत मे माताजी ने अपनी युक्ति युक्त शैली में उपस्थित संघ एवं श्रद्धालुओं को सम्बोधित करते हुए कहा की-
🔮 *भो चेतन! इच्छाओ की अपेक्षा नहीं वरन उपेक्षा शौच धर्म है।*
🔮 *इंद्रिय विषयो से निवृत्ति का नाम शौच धर्म है।*
🔮 *हे विज्ञात्मन मन रूपी बर्तन को निरंतर माँजना, साफ करना शौच धर्म है।*
🔮 *भो भव्यात्मन! ममत्व को हटाकर समत्व से निजतत्व की ओर गमन ही शौच धर्म का जन्म है।*
🔮 *मिथ्यात्वादी दोषों से मलिन होकर गंगादि में सेकड़ों बार स्नान कर विशुद्धि संभव नहीं है, वरन सम्यक्त्वाचरण के सात्विक जल से परम विशुद्धी संभव है।*
🔮 *लोभी मन का धर्म चिकने घड़े पर जल डालने के समान हैं।*
इसलिए आज के इस पावन पर्व पर हम लोभ का परित्याग कर शुचिता को धारण कर उत्तम शौच धर्म को आत्मसात करें।
संकलन अभिषेक जैन लुहाडीया रामगंजमंडी
