साधु दीक्षा से लेकर समाधि तक अपने कर्मो की निर्जरा करते रहते है मुनि श्री

  अशोकनगर- मुनि श्री निर्णय सागर जी महाराज ने अपने प्रवचनों मे साधु परमेष्ठी के मूल गुणों की व्याख्या की उन्होंने बताया 6 आवश्यक का  पालन सभी मुनिराज करते है और आचार्य परमेष्ठि भी स्वयं इनका पालन करते है अन्य मुनिराजों को करवाते है आवश्यक स्तवन के तहत आदिनाथ आदि 24 तीर्थंकर प्रभु की स्तुति करते है और सुबह उठकर सामयिक प्रतिक्रमण  आदि करके सभी भगवानों का स्तवन करते है उन्होंने कहा श्रावकों को सबसे पहले उठकर णमोकार मंत्र पढ़ना चाहिए। इसके बाद मंदिर मे पूजन अभिषेक करे और भगवान का गुणगान करे। साधु तीर्थकर जो मूलनायक है उनका स्मरण करके उनकी वंदना करते है और पंचपरमेष्टि और गुरु भक्ति आदि का पाठ करते है। साधु दीक्षा से लेकर समाधि तक अपने कर्मो की निर्जरा करते है। शुभ उपयोग और शुद्ध उपयोग द्वारा अपने कर्मो की निर्जरा करते रहते है। मुनि श्री ने बताया देखो एक अग्नि का उपयोग कितनी तरह से किया जा सकता है जैसे भोजन बनाने मे, गर्म करने, उजाला आदि में काम आती है। दिशा सामयिक अथवा क्षमता समान भावों का नाम ही क्षमता है। साधु सामयिक के द्वारा भी कर्मो की  निर्जरा करते है साधु दिन में तीन बार सामयिक करते है जो सामयिक नही करता व साधु नही कहलाएगा। श्रावकों की 11 प्रतिमा होती है तीन प्रतिमा वाले श्रावक को दिन मे तीन बार सामायिक करनी पड़ती है और दो प्रतिमा वाले श्रावक को दिन मे दो बार सामयिक करना अनिवार्य होता है।
     संकलन अभिषेक जैन लुहाडीया रामगंजमंडी

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