मां प्रथम गुरु है, जिसकी बराबरी सौ शिक्षक मिलकर भी नहीं कर सकते: आचार्य निर्भय सागरजी

तेंदुखेड़ा -नगर के शांतिनाथ मंदिर में विराजमान वैज्ञानिक संत आचार्यश्री निर्भय सागर जी महाराज ने मदर्स डे पर कहा कि मां नेचुरल प्राकृतिक शब्द है, किसी ने बनाया नहीं। बच्चे और तिर्यंच के मुख से भी मां शब्द सहज ही निकलता है। मदर, मॉम ओरिजिनल शब्द नहीं है बल्कि बनावटी शब्द है। मदर्स डे भारतीय संस्कृति नहीं है। विदेशों में कई कॉलोनी ऐसी हैं जहां जन्में बालक के पिता का पता ही नहीं हैं और ऐसी स्त्री विवाह किए बिना गलत कार्य कर के संतान की उत्पत्ति कर के अलग रह रही है। लेकिन जो बालक प्रातः उठकर सबसे पहले मां के चरण स्पर्श करता है, उसके जीवन में प्रतिदिन मदर्स डे है।
उन्होंने कहा मां अपने आप में परिवार की धुरी होती है। मां प्रथम गुरु है जिसकी बराबरी सौ शिक्षक मिलकर भी नहीं कर सकते हैं। मां ममता की मूर्ति है क्योंकि जब दुःख तुम्हें होता है तो आंसू मां के निकलते हैं, बुखार तुम्हें होता है तो पारा मां का चढ़ता है, भूख तुम्हें लगती है तो छटपटाहट मां को होती है। भगवान की मूर्ति से बढ़कर मां होती है। आचार्यश्री ने मां की प्रमाणिकता पर जोर देते हुए कहा कि जैसे किसी वस्तु पर आईएसआई की सील (मार्का) लगा कर शुद्धता का प्रमाण हो जाता है, उसी प्रकार यदि मां का शील धर्म सुरक्षित, पवित्र और कलंक रहित यदि है तो प्रणाम करने योग्य है। जिस भूमि पर हम रहते हैं वह भारत माता है और जिससे ज्ञान मिलता है वह जिनवाणी मां है। अपने संतान का मुख किसी फिल्मी हीरो से न मिलाकर अपने दादा, पिता, मां से मिलाना चाहिए। आधुनिक मां जो संतान की इच्छा नहीं रखकर मात्र वासना की पूर्ति करती है और गर्भपात कराती है तो वह हत्यारिन मां है। जो बच्चे अलग हॉस्टल या मां से दूर रहते हैं तो उनकी याद में यह मदर्स डे मनाया जाता है। जो संतान मां के साथ रहती है उनके लिए तो रोज मदर्स डे होता है।
मां का स्वभाव त्याग मय होता है क्योंकि वह स्वयं के लिए नहीं जीती बल्कि अपने पति, सास-ससुर, देवरानी-जेठानी, संतान के लिए जीती है। संतों को प्रथम आहार कराती है, जिनवाणी और गुरुवाणी का सेवन कर के एक दिन आर्यिका मां बनकर पूज्य बन जाती है। आधुनिक मां जरा सी बात की नोंक-झोंक पर तलाक चाहती है, सास-ससुर से अलग रहना चाहती है, शराब आदि का सेवन करती है और गर्भपात कराती है। वह मां धन्य है जिसकी संतान संत बनकर आज भारत की भूमि पर विचरण कर रही है। मां दीपक की जलती हुई लौ के समान है जिसमें ऊष्मा छिपी होती है। मां की सुंदरता ब्यूटी पार्लर में जाने से नहीं होती बल्कि शील संयम ही मां की सुंदरता है। कष्ट में मां को और भय में पिता को याद किया जाता है।
           संकलन अभिषेक जैन लुहाड़िया रामगंजमंडी

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