सागर -हमारा शरीर आयु कर्म पर निर्धारित होता है। आयु कर्म सबकी निर्धारित है।
क्षणभर में हमारी आत्मा शरीर को त्याग कर दूसरे शरीर में प्रवेश कर जाती है। यह शरीर कच्चे घड़े के समान है। यह बात मुनिश्री समय सागर महाराज ने श्रावकों की कक्षा में कही। मुनिश्री ने कहा सिर्फ सोचने भर से हिंसा का बंध हो जाता है। किसी के बारे में हमने सोच भर लिया उसके साथ ऐसा करना है और यह हमारे कर्मों में बंध हो जाता है। यह नरकाय का बंध होता है। हम बहुत सारी आशाएं करते हैं और यही आशा हमारी दुर्गति का कारण है। शरीर के प्रति हमारा ममत्व कुछ ज्यादा ही है। हमारे तीर्थंकर का निर्माण होता है, उनकी भी मृत्यु निश्चित है लेकिन अकाल मौत नहीं होती। उनका शरीर कपूर की भांति उड़ जाता है। मुनिश्री ने कहा तीर्थंकर तो मोक्ष जाते हैं। परंतु आप लोग कहां जाते हैं, इसी संसार में भटकते रहते हैं। यह सब आपके कर्मों के कारण होता है। मान लो आपका बेटा अमेरिका में है तो आप हेलो हेलो के माध्यम से उससे संबंध बना लेते हैं। यह संबंध दो शरीर के माध्यम से जोड़ता है लेकिन आत्मा से नहीं होता है। शरीर को लेकर आप का अपना पराया छूटता नहीं है। व्रत भी ले लें, संकल्प भी कर लें तो भी अपना पराया बना रहता है और यह संयोग ही दुख का बड़ा कारण है। सभी को पता है कि क्षण भर में हमारा शरीर बिगड़ने वाला है और उसके बाद भी हम शरीर का पोषण करने में लगे रहते हैं। आत्मा का वेट नहीं होता बल्कि शरीर का वेट होता है
संकलन अभिषेक जैन लुहाड़िया रामगंजमंडी
